Friday, May 14, 2010

गाली प्रक्ररण : गडकरी ने साबित कर दिया क़ि वे पक्के संघीय हैं

भारतीय सस्कृति की वाहक भाजपा के अध्यक्स नितिन गडकरी ने बीते दिनों जिस शुद्ध संसदीय भाषा का इस्तेमाल किया उसने प्रमाणित कर दिया है क़ि गडकरी पक्के संघीय हैं. और राष्ट्रीय राजनीति में आरएसएस के मूल्यों को स्थापित करेंगे. आर आर एस को शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए की वह इतने संस्कारवान नेताओं को दिल्ली भेज रहा है.

Friday, April 30, 2010

खाद्यान्न भंडारण का वही पुराना राग

खाघ संकट के लिए आमतौर पर कृषि उपज में कमी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। पर देश के किसानों ने इस बार दो फसलों आलू और गेहूं का पर्याप्त उत्पादन किया है। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि किसानों की अथक मेहतन से तैयार फसल के सुरक्षित भंडारण की समुचित व्यवस्था देश में नहीं है। शीतगृहों के अभाव में आलू भंडारण संकट का मामला शांत भी नहीं हुआ था कि भारतीय खाघ निगम (एफसीआई) के पास गेहूं भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था न होने की बात सामने आ रही है। सही मायने में देश में भंडारगृहों और शीतगृहों की कमी का खामियाजा देश के किसानों को ही भुगतना पड़ता है। देश में बीते साल के 314 लाख टन की तुलना में इस साल 327 लाख टन आलू उत्पादन हुआ है। देश के किसान इस वक्त आलू के दाम अच्छे न मिलने के कारण नवम्बर तक आलू शीतगृहों में रखते हैं। लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में शीतगृहों की संख्या 5400 है, जिनकी क्षमता महज 240 लाख टन भंडारण की है। इनमें सर्वाधिक शीतगृह उत्तर प्रदेश में हैं। इनकी क्षमता भी 97 लाख टन है जबकि राज्य में 125 लाख टन आलू की पैदावार हुई है। इसी प्रकार दूसरे सबसे बड़े आलू उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल में महज 402 शीतगृह हैं। ये गत वर्ष उत्पादित 52 लाख टन आलू के लिए भी पर्याप्त नहीं थे जबकि इस साल आलू उत्पादन करीब 100 लाख टन है। भंडारण के अभाव में आलू उत्पादक कौड़ियों के भाव आलू बेचने को मजबूर हुए। किसानों को देश के कुछ इलाकों में तो आलू का भाव एक रूपए प्रति किलो से भी कम मिला। कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के अनुसार पश्चिम बंगाल में 2.80 रूपए और उत्तर प्रदेश में 3.10 रूपए प्रति किलो आलू है। यह भाव भी आलू उत्पादन में लगने वाली औसत लागत से कम है। देश में प्रति किलो आलू उत्पादन की लागत 3.50 रूपए आती है। आलू उत्पादकों का संकट अभी टला भी नहीं था कि अब यही कहानी गेहूं उत्पादकों के साथ दोहराई जा रही है। गौरतलब है कि इस बार देश में गेहूं की पैदावार अच्छी होने का अनुमान है। गेहूं एक अप्रैल से ही मंडियों में बिकने के लिए आने लगा है। गेहूं उत्पादक अधिकांश राज्यों में किसानों को मंडियों में गेहूं खरीद के लिए इंतजार करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश में सरकारी खरीद का सही प्रबंध न होने के कारण राज्य के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे गेहूं बेचने को मजबूर हैं। प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य हरियाणा व पंजाब में भारी मात्रा में गेहूं खरीदने वाली कारगिल, अदानी और आइटीसी जैसी बड़ी कम्पनियों ने इस बार हाथ पीछे खींच लिए हैं। इन राज्यों के मिल मालिक उत्तर प्रदेश से गेहूं खरीद रहे हैं। नतीजन, किसानों को पूरा गेहूं सरकारी एजेंसियों को ही बेचना होगा। दोनों राज्यों का 185 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य है। लेकिन इन राज्यों में भंडारण की क्षमता महज 125 लाख टन की है। ऐसे में 60 लाख टन गेहूं कहां रखा जाएगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है। मध्यप्रदेश में 45 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य रखा गया है जबकि राज्य में भंडारण व्यवस्था महज 23.9 लाख टन की है। राजस्थान की पिछले साल के 10 लाख टन गेहूं खरीद की तुलना में इस सीजन में 7 लाख टन गेहूं खरीदने की योजना है। यहां भी गेहूं भंडारण के लिए सरकार निजी क्षेत्र के गोदामों को किराए पर ले रही है। ऐसे में चालू सीजन में देश भर में 262.67 लाख टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य पूरा होने पर यह कहां रखा जाएगा यह चिंता का विषय है। तय है कि सरकारी एजेंसियां खरीद भी लेती हैं तो यह गेहूं आम आदमी तक पहुंचने की बजाए खुले आसमान के नीचे सड़ेगा। देश को अनाज, फल व सब्जियां सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर भंडारगृहों और शीतगृहों की आवश्यकता है। इस समय एफसीआई की कुल भंडारण क्षमता 284.50 लाख टन मात्र है। हाल में एफसीआई ने आगामी डेढ़ साल में अनाज भंडारण क्षमता 126 लाख टन बढ़ाने की योजना बनाई है। हांलाकि इसके बाद भी भंडारण की व्यवस्था पूरी नहीं हो पाएगी। फिक्की के एक आकलन के मुताबिक शीतगृहों की कमी से देश में 30 ये 35 प्रतिशत यानी 600 लाख टन फल-सब्जियां प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाती हैं, जिनकी कीमत करीब 58,000 करोड़ रूपये बैठती है। एक अन्य आकलन के मुताबिक उत्पादन के बाद आम उपभोक्ता के पास पहुंचने तक देश में ढुलाई और भंडारण की उचित व्यवस्था के अभाव में 30 प्रतिशत से अधिक अनाज बर्बाद हो जाता है। दुनिया में सर्वाधिक भूखों वाले देश में इतना अनाज बर्बाद हो जाना गंभीर अपराध नहीं तो और क्या है!

Sunday, April 11, 2010

सजा-ए-मौत और सैकड़ों सवाल

दुनिया से मृत्युदंड की सजा के उन्मूलन के प्रयास धीरे-धीरे रंग ला रहे हैं। मानवाधिकार पर काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित अनेक मानवाधिकार संस्थाएं इसके उन्मूलन के लिए सालों से अभियान संचालित कर रही हैं। दरअसल, मृत्युदंड की सजा को जीने के सहज अधिकार के खिलाफ माना जाता है। इसके अलावा इसे अमानवीय व अपमानजनक सजा रूप में देखा जाता है। वर्ष 1977 से इसके खिलाफ एमनेस्टी अभियान चला रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा वर्ष 2009 में मौत की सजाओं पर जारी ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि 2009 में 18 देशों में 714 लोगों को मौत की सजा दी गई, जबकि 56 देशों में कम से कम 2,001 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। इन आंकड़ों में चीन की संख्या शामिल नहीं है, क्योंकि चीन सरकार मौत के आंकडे़ जारी नहीं करती और मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होने के कारण भी इस संदर्भ में सही-सही जानकारी बाहर नहीं आ पाती है। जबसे एमनेस्टी ने मौत की सजा के आंकडे़ रखना प्रारंभ किया है, यह अब तक की न्यूनतम संख्या है। वर्ष 2008 में मौत की सजा की संख्या में वर्ष 2007 की तुलना में वृद्धि हुई थी, जो पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय था। वर्ष 2009 के 714 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 2,390 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। जबकि वर्ष 2007 में 1,252 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। सजा सुनाने के मामले में भी इस साल कमी आई है। वर्ष 2009 के 2,001 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 8,864 लोगों और वर्ष 2007 में 3347 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। मौत की सजा के उन्मूलन की ओर बढ़ते कदम के रूप में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बुरूंडी और टोगो देश को रेखांकित किया है, जहां वर्ष 2009 में मृत्युदंड की सजा के प्रावधान का पूर्णत: उन्मूलन कर दिया गया। यह दोनों देश मृत्युदंड का उन्मूलन करने वाले दुनिया के क्रमश: 93वें और 94वें देश बन गए। अब तक दो तिहाई देश इस सजा का कानून और व्यवहार में उन्मूलन कर चुके हैं। वर्ष 2009 में ही 58 देशों में सजा का प्रावधान था, लेकिन महज 18 देशों में मौत की सजा दी गई। एमनेस्टी के आंकडे़ रखने के बाद से यह पहला मौका है, जब यूरोप के किसी भी देश में मौत की सजा नहीं दी गई। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि यूरोप में बेलारूस ही एक ऐसा देश है, जहां के कानून में मौत की सजा का प्रावधान है। अमेरिकी देशों में अमेरिका ही ऐसा मुल्क है, जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा का इस्तेमाल किया गया। सब-सहारा अफ्रीकी देशों में केवल बोत्सवाना और सूडान में मौत की सजा दी गई। एशियाई देशों में अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, मंगोलिया और पाकिस्तान में यह पहली मर्तबा हुआ है कि जब किसी भी शख्स को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। रिपोर्ट के मुताबिक मौत की सजा देने और सुनाने दोनों में ही चीन का स्थान पहला है। हालांकि चीन की सही-सही संख्या रिपोर्ट में जारी नहीं की गई है, लेकिन एमनेस्टी का अंदाजा है कि यह संख्या 1,000 से ऊपर हो सकती है। चीन के बाद सजा देने में ईरान का दूसरा स्थान आता है, जहां 388 लोगों को मौत की सजा दी गई। इसके बाद इराक (120), सऊदी अरब (69), संयुक्त राज्य अमेरिका (52) और यमन (30) का स्थान आता है। इसी प्रकार मौत की सजा सुनाने में चीन के बाद इराक का दूसरा स्थान आता है, जहां 366 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। उसके बाद पाकिस्तान (276), मिस्र (269), अफगानिस्तान (133), श्रीलंका (108), संयुक्त राज्य अमेरिका (105) और अल्जीरिया (100) का स्थान आता है। भारत 15वें स्थान पर है, जहां 50 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा के उन्मूलन में कुछ सकारात्मक पहलू देखे गए, वहीं मौत की सजा को अमल में लाने के कुछ ऐसे तरीके अपनाए जा रहे हैं, जो इक्कीसवीं सदी में किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराए जा सकते। चीन में सरेआम गोली मार दी जाती है। सऊदी अरब में गला काट कर सजा-ए-मौत दी जाती है। ईरान में अब भी पत्थर मार-मारकर मौत की सजा देने का प्रचलन है। अमेरिका जैसे आधुनिक मुल्क में बिजली के झटके से मौत की सजा दी जाती है। ज्यादातर मुल्कों में फांसी पर लटका कर मौत की सजा दी जाती है। चीन, थाईलैंड और अमेरिका में प्राणघातक इंजेक्शन का इस्तेमाल मौत की सजा देने के लिए किया जाता है। व्यवहार में देखा गया है कि मौत की सजा का आमतौर पर भेदमूलक इस्तेमाल किया जाता है। इसका प्रयोग गरीबों, अल्पसंख्यकों, विशेष नस्ल के समुदायों के खिलाफ किया जाता है। कई देशों में इसका राजनीतिक उपयोग भी किया जाता है। रिपोर्ट में इसके लिए ईरान का उदाहरण दिया गया है। वर्ष 2009 में ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान 12 जून से 5 अगस्त के बीच महज दो माह में 112 लोगों को मौत की सजा दी गई। रिपोर्ट का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि कई देशों में बाल अपराधियों के खिलाफ भी इस सजा का इस्तेमाल किया जा रहा है। वर्ष 2009 में ईरान और सऊदी अरब में किशोरों को भी फांसी पर चढ़ाया गया। उन्हें भी सजा दी गई, जो अपराध करते समय 18 साल से भी कम आयु के थे। ईरान में ऐसे 7 किशोरों और सऊदी अरब में 5 किशोरों को सजा-ए-मौत दी गई, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सीधा सीधा उल्लंघन है।
(यह लेख आज के दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है )

Thursday, April 8, 2010

सिखों के कत्लेआम के ज़िम्मेदार कमलनाथ जैसे लोगों को छोड़ा नहीं जाएगा: अमेरिका में प्रदर्शन

(भारतीय न्यायपालिका से न्याय क़ि उम्मीद खो चुके सिक्खों ने आज अमेरिका में कमल नाथ के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया . इसमें शामिल लोगो से बी बी सी ने बातचीत की आगे प्रस्तुत है उनसे क़ि गई बातचीत के अंश)



मोहेंदर सिंह ने कमलनाथ के ख़िलाफ़ न्यूयॉर्क की केंद्रीय अदालत में मुक़दमा दायर किया है। मोहिंदर सिंह नेबीबीसी को बताया कि दिल्ली में उनके परिवार के 4 लोगों को बेरहमी से मार दिया गया था.

मोहेंदर सिंह कहते हैं, मेरे पिताजी और दो चाचा को टुकड़े टुकड़े करके जला कर मार डाला गया. हमारे दादाजी नेइतने सालों से अदालतों के चक्कर लगाए लेकिन हमें इंसाफ़ नहीं मिला. हमने 25 साल तक इंतज़ार किया लेकिनकोई नतीजा नहीं निकला. ये लोग ऐसे सुनने वाले नहीं है इसलिए हमे इनको अमरीकी अदालत में घसीटना पड़ा. हम चाहते हैं हमें इंसाफ़ मिले.

इस मुक़दमे में सिखों की ओर से वकील गुरपतवंत पन्नुन का कहना है कि कमलनाथ जैसे लोगों को क़ानून केकटघरे में लाकर सज़ा दिलवाने की हर कोशिश की जाएगी.वकील का कहना है, हमने तय कर लिया है कि सिखोंके कत्लेआम के ज़िम्मेदार कमलनाथ जैसे लोगों को छोड़ा नहीं जाएगा और हम इंसाफ़ लेकर ही दम लेंगे.

इन प्रदर्शनकारियों का यह भी कहना है कि सन 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम को 25 साल हो गए अब इसकेदोषियों को सज़ा दी जानी चाहिए.

दिल्ली के दंगों में मारे गए लोगों में जसबीर सिंह के खानदान के 26 लोग भी शामिल थे.

वह कहते हैं,कमलनाथ ने खड़े होकर खुद उग्र भीड़ का नेतृत्व किया था जिसने गुरूद्वारे में सिखों की हत्या करीऔर गुरूद्वारा रकाबगंज को जलाया. ऐसे कातिलों को मंत्री बनाकर अमरीका भेजकर प्रधानमंत्री क्या संदेश देना चाहते हैं.

जसबीर सिंह कहते हैं कि इतने सालों से विभिन्न आयोगों का गठन किया गया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ.

अब उनको अमरीका में अदालत से कुछ आस है.

सिख फ़ॉर जसटिस नामक संस्था द्वारा आयोजित इस विरोध प्रदर्शन में करीब सौ लोगों ने भाग लिया जिनमें बच्चे, महिलाएं और बूढ़े भी शामिल थे.

बहुत से प्रदर्शनकारियों का यह भी कहना था कि कमलनाथ जैसे लोगों को जिनपर मासूम लोगों के कत्लेआम काइलज़ाम लगा हो अमरीका में प्रवेश की भी आज्ञा नहीं होनी चाहिए.

न्यूयॉर्क के गुरूद्वारा बाबा मख्खंशाह के अध्यक्ष मास्टर महिंदर सिंह का कहना था कि कमलनाथ जैसे लोगों को तोजेल में होना चाहिए कि मंत्री पद पर.

वह कहते हैं,भारत सरकार को चाहिए कि कमलनाथ जैसे मंत्री को निकाल बाहर करें और ढंग के लोग ले आएं. ऐसे लोगों के बग़ैर भी मुल्क चल सकता है. कमलनाथ को तो मंत्री पद से हटाकर उनपर मुक़दमा चलाया जानाचाहिए.


Monday, April 5, 2010

दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जरूरी

भारतीय खानपान में दालों का खास महत्व है। दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला भारतीय समाज के कई समुदायों में मांसाहार वर्जित है, जो अतिरिक्त प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। दूसरा खास कारण यह है कि प्रोटीन के अन्य स्रोतों की तुलना में दालें सस्ती मानी जाती रही हैं। पर बीते सालों में जिस कदर दालों की कीमतें बढ़ी हैं ‘दाल-रोटी खाआ॓ प्रभु के गुण गाआ॓’ वाला मुहावरा निरर्थक साबित हो चुका है। इसकी वजह देश की कृषि नीति में तलाशी जा सकती हैं जिसके कारण दाल उत्पादन देश के किसानों के लिए घाटे का सौदा बन गया है। हरित क्रांति के दौर में गेंहू और धान की उपज दर बढ़ाने पर विशेष जोर दिया गया था। इसमें अच्छी सफलता भी हासिल हुई। इसके अलावा केन्द्र सरकार की खरीद-नीति तथा अन्य समर्थक रणनीति ने भी दोनों प्रमुख खाघान्नों का उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन दाल के मामले में सरकार ने जरूरत से ज्यादा लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई। प्रौघोगिकी व कृषि पद्धति की दृष्टि से भी इसके उत्पादन में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर नहीं आया। न कोई सामयिक योजना बनाई गई और न ही उत्पादकों को कोई अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया गया। इसके अलावा जोखिम एवं लागत खर्च, सरकारी खरीद नीति की गैर मौजूदगी, उन्नत एवं उच्च उपज दर वाली प्रजाति के बीजों की कमी, कृषि क्षेत्र का दयनीय बुनियादी ढांचा दाल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बीजों की बात करें तो देश में धान और गेहूं के 90 प्रतिशत प्रमाणित बीज किसानों को मिल जाते हैं। 40 सालों में राष्ट्रीय बीज कॉरपोरेशन ने दालों के 400 बीज विकसित किए हैं पर इनमें से 124 का ही उपयोग उत्पादन के लिए किया जा रहा है। इनमें से भी 10-12 किस्में ही किसानो को आसानी से मिल पाती हैं। जहां दाल उत्पादन के प्रति सरकार उदासीन रही है वहीं निजी कंपनियां भी इनके अनुसंधान पर पैसा खर्च नहीं करती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि दाल खासकर दक्षिण एशिया की फसल है और निजी बीज कंपनियों को इसमें लाभ नजर नहीं आता। भारत में दाल की औसत उत्पादकता दर 600 किलो प्रति हेक्टेयर है जो संसार के सर्वक्षेष्ठ उपज दर वाले देशों से बहुत पीछे है। कुछ देशों में औसत उपज दर 1800 किलो प्रति हेक्टेयर तक दर्ज की जा रही है। अन्य फसलों और दलहन फसलों में किसानों के लाभ के अंतर को आसानी से समझा जा सकता है। दाल की उपज दर प्रति हेक्टेयर 600 किलो है जबकि धान की 3000 किलो प्रति हेक्टेयर से अधिक। सरकार द्वारा अरहर के लिए 2009-10 में घोषित किया गया न्यूनतम सर्मथन मूल्य (एमएसपी) 2300 रूपए प्रति क्विंटल है। इसी दौरान धान का समर्थन मूल्य 1080 रूपए प्रति क्विंटल। यानी एक हेक्टेयर में दाल उत्पादन करने में किसान को एक लाख 38 हजार रूपए प्राप्त होता है जबकि इतनी ही भूमि पर धान बोने पर 3 लाख 32 हजार प्राप्त होते हैं। यानी दोगुने से ज्यादा। इसके अलावा दलहन की फसल तैयार होने में समय भी ज्यादा लगता है। करीब 8-10 माह में इसकी फसल तैयार होती है जबकि किसान साल में धान और गेहूं की दो फसल ले लेते हैं। दाल की फसल ठंड और गर्मी के प्रति भी ज्यादा संवेदनशीन होती है। भारत में कीड़ों-रोगों के साथ-साथ फसल पोषण का प्रबंधन भी कमजोर और अपर्याप्त है। परिणामस्वरूप उपज दर घट जाती है। रोगों के लगने की संभावना भी दाल की फसल में ज्यादा होती है। जैसे प्रोटीन के कारण इंसान दालों को पंसद करते हैं, कीट भी दालों को पसंद करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 250 कीट दालों को खराब कर देते हैं। परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष 20 लाख टन से अधिक दालें बरबाद हो जाती हैं। इधर सुखद संकेत यह है कि आजादी के साठ साल बाद देश के बजट में दलहन उत्पादन को प्राथमिकता दी गई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने देश में 60 हजार दलहन-तिलहन गांव बनाने के लिए 300 करोड़ का अतिरिक्त बजट आवंटित किया है। हालांकि, जिस कदर किसान दाल उत्पादन से मुंह मोड़ चुके हैं, यह बजट नाकाफी है। दलहन-तिलहन गांव के लिए आंवटित बजट देश के दाल आयात बिल का महज 2.5 प्रतिशत है। दाल उत्पादन के लिए खर्च किए जाने वाली कुल राशि भी आयात बिल का महज 6 प्रतिशत है। दालों के आयात पर देश सलाना 12 हजार करोड़ रूपए व्यय करता है जबकि योजनाओं का कुल सलाना बजट महज 700 करोड़ है। यदि देश को दालों के मामले में आत्मनिर्भर होना है तो दाल आयात का एक हिस्सा दाल उत्पादन में व्यय करना पडे़गा ताकि आने वाले समय में दालों का आयात बजट कम हो और आम आदमी को उचित दाम पर सुगमता से दाल प्राप्त हो।

Saturday, April 3, 2010

कौड़ियों के भाव बिकता आलू


इन दिनों देश के आलू उत्पादक संकट में हैं। बीते साल किसानों को आलू के अच्छे दाम मिले थे। इस साल भी अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद से किसानों ने आलू उत्पादन बढ़ा दिया। पर हुआ वैसा ही जैसा साल दो साल में होता है। फसल आते ही आलू के दाम एकाएक गिर गए। अच्छी कीमत न मिलने के कारण किसान कुछ समय तक आलू कोल्ड स्टोरेज में रखना पसंद करते हैं ताकि बाद में अच्छी कीमत मिल सके। लेकिन देश में आलू भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है जिससे किसान आसानी से आलू कोल्ड स्टोरेज में भी नहीं रख सकते। नतीजा, किसान औने-पौने दाम पर आलू बेचने के लिए मजबूर हैं। दरअसल आलू उत्पादन से किसानों को तत्काल नकद राशि मिल जाती है। इसलिए किसानों के लिए यह लाभ की खेती मानी जाती है और पूरे देश के किसान आलू की खेती करते हैं।

इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि १९६० से २००६ के बीच आलू उत्पादन में ८५० प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। आलू उत्पादन में भारत का विश्व में चीन और रूस के बाद तीसरा स्थान है। भारत प्रतिवर्ष औसतन ३०० लाख टन आलू उत्पादन करता है। भारत में आलू उत्पादन की तुलना में उपभोग बहुत कम होता है। वैश्विक स्तर पर जहाँ ३३ किलोग्राम प्रति व्यक्ति उपभोग होता है वहीं भारत में प्रति व्यक्ति उपभोग १६ से १८ किलोग्राम ही है। इस आधार पर देश की जरूरत २०० लाख टन है। जबकि उत्पादन इससे काफी अधिक। इसलिए आलू अच्छी खासी मात्रा में निर्यात किया जाता है। दो सालों से उत्पादन अच्छा हो रहा है। इस साल उत्पादन ३२७ लाख टन होने का आकलन है जबकि गत वर्ष उत्पादन ३१४ लाख टन था। अधिकांश आलू नवंबर तक कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है। पर देश में कोल्ड स्टोरेज की भारी कमी है। देश में लगभग ३५०० कोल्ड स्टोरेज हैं जिनमें अधिकांश हिस्सा निजी क्षेत्र का है। यानी सरकार कोल्ड स्टोरेज बनाने के प्रति कभी भी सजग नहीं रही है। सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले उत्तरप्रदेश में १९०० कोल्ड स्टोरेज हैं। वहीं सबसे ज्यादा किसानों को इस समस्या से दो-चार होना पड़ता है जिनकी क्षमता ९७ लाख टन आलू रखने की है जबकि अनुमान है कि प्रदेश में इस बार आलू उत्पादन १२५ लाख टन से अधिक होगा। आलू उत्पादन के दूसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल में महज ३९० कोल्ड स्टोरेज हैं। औसतन ५२ लाख टन आलू उत्पादन करने वाले पश्चिम बंगाल में इस साल लगभग १०० लाख टन फसल होने का अनुमान है जो कि गत वर्ष के ५५ लाख टन से लगभग दोगुना है। कोल्ड स्टोरेज अभी से भर गए हैं। परिणाम यह है कि बंगाल के कई इलाकों के किसान आलू एक रुपए किलो बेचने को मजबूर हो रहे हैं। आगरा के किसान आलू १.५० रुपए प्रति किलो बेच रहे हैं। अभी तक देश में आलू के अधिकतम दाम ४२० रुपए क्ंिवटल तक ही गए हैं जबकि आलू उत्पादन की औसत कीमत ३५० रुपए प्रति क्विंटल आती है।



Saturday, March 27, 2010

दाल गलाने की कोशिश


भारत में शाकाहारी वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। देश की खाद्य शैली में दाल प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है। पर बीते सालों में जिस गति से दालों की कीमतें बढ़ी हैं आम आदमी की ही नहीं बल्कि मध्य वर्ग की थाली से भी दाल दूर होती गई है। आसमान छूती कीमतों को नियंत्रित करने में सरकार कई प्रयासों के बावजूद असफल रही। पर दाल संकट की छाया केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत हाल के बजट में भी देखने को मिली। बजट में दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया गया है। दरअसल, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। फिर भी उत्पादित दाल समुचित आपूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होती और देश को विदेश से आयात पर निर्भर रहना पड़ता है।

देश में दाल की खपत लगभग १८० लाख टन है जबकि उत्पादन क्षमता १५० लाख टन तक ही सीमित है। जिस वजह से ३० लाख टन से अधिक दाल आयात करनी पड़ती है। १९९४ में जहां देश ५.८ लाख टन दाल आयात करता था वहीं २००९ में दाल आयात २३ लाख टन पहुंच गया है। गौर करने वाली बात यह है कि देश में बढ़ती जनसंख्या के साथ ही प्रति वर्ष ५ लाख टन दाल की खपत बढ़ रही है। यदि घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए अभी से प्रयास नहीं किए गए तो २०१२ तक देश को प्रतिवर्ष ४० लाख टन दाल आयात करनी पड़ेगी।

घरेलू उत्पादन में कमी और विदेश से ऊंचे भाव में दाल आयात करने के कारण ही दाल की कीमतें लगातार बढ़ी हैं। २००९ में ही दाल की कीमत लगभग दोगुनी हो गई। इसका परिणाम है कि घरों का बजट दाल का खर्च वहन नहीं कर पा रहा है। दाल का उपभोग निरंतर घट रहा है। ४० सालों में प्रति व्यक्ति उपभोग २७ किग्रा प्रतिवर्ष से घट कर ११ किग्रा रह गया है। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सिफारिश है कि प्रति व्यक्ति प्रति दिन ८० ग्राम दाल उपभोग होना चाहिए यानी स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिवर्ष २९ किग्रा से ज्यादा। फिलहाल सुखद संकेत यह है कि दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने अतिरिक्त धन आंवटित किया।

बजट में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में ६०,००० दलहल एवं तिलहन ग्राम बनाने की घोषणा की गई है। हालांकि देश में दाल उत्पादन जिस स्तर पर पहुंच गया है उसमें एक झटके में सुधार नहीं होगा। सरकार की मंशा तभी पूरी हो सकती है जब वह किसानों को दाल उत्पादन में लाभ दिखा सके और किसान दाल की खेती की ओर आकर्षित हों।

भगवान का मंदिर तोड़ आडवाणी खुश हुये थे .....

क्या लिखना, भगवान आडवाणी का भला करे.......

Tuesday, March 23, 2010

दूषित होता जल, खतरे में हमारा कल

जल इंसान की ऐसी बुनयादी जरूरत है, जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन सिर्फ जल होना ही पर्याप्त नहीं है। इसका स्वच्छ होना भी स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है। पर चिंता का विषय यह है कि विश्व स्तर पर जल निरंतर दूषित होता जा रहा है। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। स्वच्छ जल के अभाव में पानीजन्य रोगों से पीडि़त लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिस कारण लाखों लोग असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दुनिया में सफाई की समुचित व्यवस्था का अभाव इस संकट को और जटिल बना रहा है। अंधाधुध अव्यस्थित विकास परियोजनाएं जल के प्रमुख स्रोत नदियों की अविकल धारा को बाधित कर रहे हैं। 22 मार्च (विश्व जल दिवस) के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय जल परिषद द्वारा जारी एक रिपोर्ट इन पहलुओं पर विस्तार से रोशनी डालती है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्रतिदिन 20 लाख टन नालों में बहने वाला मल और औद्योगिक व कृषि कचरा पानी में मिल जाता है। इसकी मुख्य वजह है सफाई की अपर्याप्त व्यवस्था। दुनिया में 2.5 अरब लोग अपर्याप्त सफाई में रहते हैं। इसके 70 प्रतिशत यानी 1.8 अरब लोग एशिया में हैं। सब सहारा अफ्रीका में 31 प्रतिशत परिवारों के पास ही सफाई के साधन हैं। यहां सफाई सुधार की गति भी काफी धीमी है। दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 1.2 अरब लोग खुले में शोच करते हैं। ग्रामीण इलाकों में यह अनुपात 3 में एक का है। दक्षिण एशिया में ऐसे लोगों की ग्रामीण आबादी 63 प्रतिशत है। औद्योगिकरण, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर भी पानी को बेतरतीब दूषित कर रहा है। विकासशील देशों में 70 प्रतिशत असंसाधित औद्योगिक कचरा पेयजल में घुल कर लोगों के घरों में पहुंच जाता है। नदियां पानी का सबसे बड़ा स्त्रोत हैं। कल कारखानों से बहता रसायन इन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहा है। खनन कार्य से भी नदियां दूषित हो रही हैं। अमेरिका के अकेले एक प्रांत में खनन के बाद छोड़ दी गई 23,000 खानों के कारण वहां बहने वाली छोटी-बड़ी नदियों का 2300 किमी का जल प्रदूषित हो गया है। दुनिया में विकास के नाम पर बनने वाली बड़ी परियोजनाओं का शिकार भी पानी हो रहा है। बांधों व अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं ने विश्व की सबसे बड़ी 227 नदियों की धाराओं को बाधित किया है, जो कि कुल नदियों का 60 प्रतिशत है। दूषित जल का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ रहा है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत का सर्वाधिक जिम्मेदार दूषित जल ही है। दुनिया में होने वाली कुल मौतों में 3.1 प्रतिशत मौतें अस्वच्छ जल और सफाई के अभाव के कारण ही होती हैं। जल के कारण प्रति वर्ष 4 अरब डायरिया के मामले सामने आते हैं। परिणामस्वरूप 22 लाख लोग प्रतिवर्ष मौत के गाल में समा जाते हैं, जिसमें अधिकांश संख्या पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की होती है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 प्रतिशत बच्चे डायरिया के कारण असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हर 15 सेकंड में एक बच्चा दूषित जल का शिकार होता है। भारत में भी बच्चों के खराब स्वास्थ और असमय मौतों का कारण भी डायरिया ही है। इससे भारत में प्रतिवर्ष तकरीबन 5 लाख बच्चे मारे जाते हैं। दरअसल, हमारी पृथ्वी पर 1.4 अरब घन किलो लीटर पानी है। 97.5 प्रतिशत पानी में समुद्र में है, जो खारा है। कुछ पानी बर्फ के रूप में है। महज एक प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है। इसमें से भी एक बड़ा हिस्सा कृषि कार्यो में खप जाता है। कुल एक प्रतिशत पानी से ही दुनिया की पूरी आबादी के लिए पानी की व्यवस्था करनी है। यदि यह भी दूषित होता रहा तो आगामी परिणाम भयावह होंगे। जल जिस गति से दूषित हो रहा है, उतना ही अधिक समय संयुक्त राष्ट्र के सहश्राब्दी विकास लक्ष्य में सबको जल उपलब्ध कराने के निर्धारित लक्ष्य में पड़ेगा। इसमें अधिक समय लगेगा या समय पर उपलब्ध कराने में लागत बढ़ जाएगी। फिलहाल वर्ष 2015 तक सभी को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने में 7,500 लाख अमेरिकी डालर व्यय होने का आंकलन है। यदि स्वच्छ जल की निर्बाध आपूर्ति हो तो विकास गति बढ़ जाती है। गरीब व अविकसित देशों में इस पर एक अध्ययन भी किया गया है। अध्ययन के मुताबिक जिन इलाकों में स्वच्छ जल व सफाई की समुचित व्यवस्था थी, वहां वार्षिक विकास दर 3.7 प्रतिशत थी, जबकि इसके अभाव वाले इलाकों में वार्षिक विकास दर महज 0.1 प्रतिशत थी।

Monday, March 22, 2010

भगत सिंह के शहादत दिवस के प्रति सरकार उदासीन क्यों ?



देश में किसी महापुरुष की सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है तो वह निर्विवाद रूप से शहीदे आजम भगत सिंह हैं। उन्हें याद किया भी जाता है तो सिफर् इसलिए की एक नौजवान २३ साल की उम्र में हंसते हुए देश की खातिर सुली पर चढ़ गया। वह क्या सोचते थे, सामाजिक, आथिर्क समस्याओं के प्रति उनका क्या नजरिया था यह बिरले ही लोग जानते हैं। स्कूल, कालेजों, सरकारी, गैरसरकारी कायरलयों में सार्वजनिक अवकाश देश में महापुरुषओं को याद करने का एक प्रचलित तरीका है। यह रस्म अदायगी भी भगत सिंह के लिए नहीं की जाती। भगतसिंह का न जन्म दिन मनाया जाता है न ही पुण्यतिथि। परिणाम यह है कि भगतसिंह को पसंद करने वाला जन मानस न उनका जन्मदिन बता सकता है न ही उसे उसका ?शहादत दिवस ही याद है। आज यानी २३ माचर् को उसी भगत सिंह का शहादत दिवस॔ है। आज ही के दिन १९३१ की आधी रात को भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इन नौजवानों का गुनाह सिफर् इतना था कि वे हर कीमत पर मुल्क की आजादी चाहते थे। आखिरकार उनकी शहादत अगस्त १९४७ में रंग लाई जब देश बि्रटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त हुआ। पर आजादी के ६ साल बाद भी देश कई आथिर्क व सामाजिक समस्याओं का सामना कर रहा है। इनमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बने हुए है। भगत सिंह के विचारों में इन सामाजिक बुराईयों का सटीक हल नजर आता है। छोटी सी उम्र में उन्होंने कई विचारोत्तोजक लेख लिखे। उनके लेख ताकिर्कता और वैज्ञानिकता से परिपूर्ण हैं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि उनके लिखे सभी लेख आज तक किसी भी सरकार द्वारा प्रका?िशत नहीं किए गऎ हैं। सरकारें इसके प्रति पूर्णतः उदासीन रही है। आजादी के बाद के कई नेताओं पर लिखी विरुदावलियां या उनकी लिखीं पुस्तकें सरकारी प्रकाशनों द्वारा प्रका?िशत की गई हैं। पुस्तकालयों में बहुतायत मिल भी जाती हैं पर भगत सिंह पर किताबें मुिश्कल से ही मिलती हैं। भगत सिंह का सबसे चचिर्त लेख है मैं नास्तिक क्यों हूं॔। जिसे उन्होंने अक्टूबर १९३ में जेल में लिखा था। यहां यह बता देना प्रसांगिक होगा कि १८ साल की उम्र में ही उन्होंने ईश्वर और धर्म को तिलांजलि दे दी थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था। उन्हें यकीन हो चला था कि सृ?ि्षट का निमार्ण या उस पर नियंत्र्ण करने वाली कोई सर्व?शक्तिमान परम सत्ताा नहीं है। इस लेख में भगत सिंह ने उन सवालों का जवाब भी दिया जो उनपर उस वक्त उठना लाजमी थे। उनका ई?श्वर पर यकीन न करने की वजह यह नहीं था कि ई?श्वर ने उनकी कोेई मनोकामना पूरी न की हो। उसके पीछे उन्होंने ठोस वैज्ञानिक कारण गिनाए और यह भी साफ लिखा कि वे किसी अहम` के कारण सर्व?शक्तिमान और सर्वव्यापी माने जाने वाले ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर रहे हैं। जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता और विश्व बधुंत्व पर लिखे उनके लेख आज की ?ारेलू व अंतरार््षट्रीय परिस्थिति में और भी प्रासंगिक हो गए हैं। १९२८ में भगत सिंह के लिखे तीन लेख ॑धर्म और हमारा स्वतंत्र संग्राम॔ ॑साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज॑ और ॑अछूत का सवाल॔ जो मई और जून में ॑किरती॔ में छपे थे। आज की भारतीय परिस्थिति पर सटीक बैठतें हैं। जिस अस्पृ?श्यता का उन्मूलन हम २१ वीं सदी में भी नहीं कर पाएं हैं भगत सिंह उस बारे लिखते हैं ॑॑उनके अछूतों मंदिरों में प्रवे?श से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र् हो जाएगा! ये सवाल बीसवीं ?शताब्दी में किए जा रहे हैंं, जिन्हें कि सुनते ही ?शर्म आती है। स्वतंत्र्ता संग्राम में भागीदारी करने वालों से भगत सिंह का सीधा सवाल था कि यदि आप एक इंसान को पीने का पानी देने से इंकार करते हो तो आप राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?? भगत सिंह के साम्प्रदायिकता पर लिखें लेख से साफ प्रकट होता है कि वे भारतीय राजनीति व समाज में अब तक प्रचलित ॑सर्वधर्म समभाव॔ की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा से इत्ताफाक नहीं रखते थे। उनका मानना था कि अपने अपने धर्म का अनुपालन करते हुए दो धर्म के लोगों का एक साथ रह पाना मुमकिन नहीं है। क्योंकि एक धर्म के अनुसार गाय का बलिदान जरूरी है तो दूसरे में गाय की पूजा का प्रावधान है। भगत सिंह इसी प्रकार अन्य उदाहरण गिनाते हैं। आजादी के आंदोलन में भी धर्म के प्रयोग को भगत सिंह आंदोलन के लिए बड़ी बाधा के रूप में देखते थे। उन्होंने साफ लिखा है कि इन धमोर् ने हिंदुस्तान का बेड़ा गकर् कर दिया है। भवि?्षय की उनकी दृ?ि्षट क्या थी जानते है उन्हीं के ?शब्दों में॑॑हमारी आजादी का अथर् केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्र्ता का नाम है " जब लोग परस्पर ? घुल मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाऎंगे। हम आज भी दिमागी गुलामी से मुक्त होने का इंतजार कर रहे हैं।

Wednesday, February 3, 2010

पहले उत्तर भारतीय व मराठी हिंदुओं ने मिलकर मुसलमानों को मारा, अब मराठी हिंदु उत्तर भारतीय हिंदुओं को भगा रहे हैं।

तकरीबन दो सालों से मराठी मुददे को लेकर राजनीति गर्म है। एक ठाकरे परिवार ने उत्तर भारतीयों पर निशाना साधा है। ठाकरे परिवार उत्तर भारतीयों या कहें हिंदी भाषियों के खिलाफ वैसे ही आक्रामक हैं जैसे एक दौर में मुसलमानों के खिलाफ था। अभी भी वह दौर कोई नहीं भूला है जब मुसलमानों के खिलाफ आक्रमकता के कारण बाल ठाकरे उत्तर भारत में कितने पोपुलर होते जा रहे थे।



इस मसले पर मेरे आफिस में भी चर्चा आमतौर पर होती रहती है। उसकी वजह है कुछ मित्रों का बिहार का होना। मेरे बिहार के मित्र ठाकरे परिवार से खार खाए रहते हैं। मुझसे भी चर्चा करते रहते हैं। ये मित्र मुसलमानों से बेइंतहा घृणा करते हैं शायद जितनी ठाकरे बिहारियों से भी न करते हों। ऐसी चर्चा पर मैं न चाह कर भी ठाकरे के समर्थन में नजर आता हूं। मेरा जवाब मेरे स्वभाव के विपरीत रहता है। मैं उनसे एक बात कहते रहता हूं। पहले मराठी हिंदुओं और उत्तर भारतीय हिंदुओ ने मुम्बई में मुसलमानों को मारा आज मराठी हिंदु उत्तर भारतीय हिंदुओं को मार रहे हैं तो मैं क्या करुं ? मेरा उनसे एक ही सवाल रहता है यदि आप कहते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है तो मुम्बई मराठियों का है कहने में गलत क्या है? मेरी उनसे आग्रह बस इतना ही रहता है पहले आप मराठी व उत्तर भारतीय हिंदुओं के संयुक्त उपक्रम द्वारा मुसलमानों के खिलाफ की गई हिंसा की निंदा कीजिए। तभी आपके पास ठाकरे की आलोचना करने का नैतिक अधिकार है।



मुम्बई में हुए साम्प्रदायिक दंगों में बाल ठाकरे, उद्वव ठाकरे, राज ठाकरे मनोहर जोषी गोपीनाथ मुंडे आदि के भड़काने या नेतृत्व में ही मराठी और उत्तर भारतीय हिंदुओ ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की थी। हिंदुओ का बड़ा तबका मराठी और हिंदी भाषी का भेद छोड़ मुसलमानो के खिलाफ एकजुट था। तब उत्तर भारतीय हिंदुओ ने शायद ही सोचा होगा कि एक दिन यही ठाकरे उनके लिए इतना खतरनाक बनेगा। कि धीरे धीरे आज उत्तर भारतीय भी मुम्बई में असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। अब तो कम से कम हमें हिंदुत्व की इस विभाजनकारी राजनीति को समझना चाहिए अन्यथा हम हमेषा ही फिरकापरस्त ताकतों द्वारा ऐसे ही इस्तेमाल होते रहेंगे।

Saturday, January 30, 2010

खाद्य सुरक्षा के लिए चुनौती बनता मांसाहार

इन दिनों दुनिया में बढ़ते भूखों की संख्या और खाद्य संकट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक चिंता का विषय बना हुआ है। इसकी कई वजहें गिनाई जा रही है। अनाज उत्पादन में कमी से लेकर अनाज का बढ़ता अखाद्य उपयोग तक। लेकिन खाद्य संकट व भूखमरी के लिए पशु उत्पादों (दूध से लेकर मांस तक) का बढ़ता उपभोग भी एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। जिसकी चर्चा कम ही हो रही है। विकसित देशों के बाद अब भारत व चीन जैसे विकासशील देशों में हो रही आर्थिक प्रगति से लोगों की आमदनी बढ़ रही है जिससे लोगों के खान पान की रूचियां तेजी से बदल रही हैं। दूध व दुग्ध उत्पादों से लेकर मांस की मांग में इजाफा हो रहा है। इनकी मांग के अनुपात में ही पशु पालन उद्योग फल-फूल रहा है और अनाज उत्पादन का बड़ा हिस्सा मनुष्य के भोजन में लगने के बजाय पशु पालन में पशु आहार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।



1961 में विश्व में मांस की कुल मांग 7 करोड़ टन थी। जो 2008 में चार गुना बढ़कर 28 करोड़ टन हो गई। इस दौरान प्रति व्यक्ति औसत मांस खपत दोगुनी हो गई। प्रति व्यक्ति अंडा और मछली उत्पादन भी दोगुना हो गया है। इस प्रकार खाद्य उत्पादन में पशु उत्पादों का हिस्सा 40 प्रतिशत के आसपास पंहुच गया है। भारत की बात करें तो देश में वर्तमान आर्थिक विकास दर के साथ प्रति व्यक्ति आय में 6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जिससे मांसाहार 9 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक यदि विकासशील देशो की विकास दर 10 प्रतिशत रहती है तो पशु उत्पादों की मांग 16 प्रतिशत की दर से बढ़ती है। विशेषज्ञों का आंकलन है कि 2050 तक पशु उत्पादों की मांग दोगुने से ज्यादा हो जाएगी। आज ही अमेरिका में पैदा होने वाला 70 प्रतिशत से ज्यादा अनाज जानवरों को खिलाया जाता है और दुनिया की दो तिहाई जमीन पर पशु आहार पैदा किया जाता है।



स्पष्ट है कि आने वाले समय में अनाज का बड़ा हिस्सा जानवरों को खिलाया जाएगा। दरअसल प्रत्यक्ष अनाज खाने की तुलना में इसे जानवरों को खिलाकर मांस, अंडे या दूध तैयार करने में अनाज की ज्यादा खपत होती है। उदाहरण के लिए विकसित देशों में एक किलोग्राम गौमांस तैयार करने में 7 किलो अनाज लगता है। एक किग्रा सुअर मांस तैयार करने में 6.5 किलो अनाज लगता है जबकि 1 किग्रा अंडा या चिकन तैयार करने में 2..5 किग्रा अनाज लगता है। इसके अलावा प्रत्यक्ष रूप से अनाज के उपभोग की तुलना में मांस उपभोग से उर्जा और प्रोटीन भी कम मिलता है। एक किलो चिकन या अंडे के उपभोग से 1090 कैलोरी उर्जा और 259 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है। जबकि एक किग्रा चिकन तैयार करने में लगे अनाज से 6900 कैलोरी उर्जा और 200 ग्राम पोट्रीन प्राप्त होता है। खासकर बड़े जानवरों का मांस खाना उर्जा और प्रोटीन के दृष्टि से अनाज की और भी ज्यादा फिजुलखर्ची है। एक किग्रा गोमांस से महज 1140 कैलोरी उर्जा और 226 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है जबकि एक किग्रा गोमांस तैयार करने में लगे अनाज से 24150 कैलोरी उर्जा और 700 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है।



इन तथ्यों से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मांसाहार भले ही प्रगति का सूचक हो लेकिन यह दुनिया में भूख मिटाने के प्रयासों के लिए कैसे चुनौती बन सकता है। लेकिन मांसाहार में कटौती की जाए तो यह लाखों भूखे लोगों का पेट भर सकता है। इसे और भी सरल रुप में इस तथ्या से समझा जा सकता है कि ब्राजील और अमेरिका में खाये जाने वाले गोमांस से बने एक पाउड के बर्गर में जितने अनाज का उपभोग होता है वह भारत के तीन लोगो का पूरा आहार है। एक अनुमान के मुताबिक मांस की खपत में महज 10 प्रतिशत की कटौती भूखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों और 6 हजार वयस्कों को असमय मौत से बचा सकता है। इसके अलावा पशुआहार पैदा करने के लिए उपयोग होने वाली भूमि का उपयोग मनुष्य की जरूरत का अनाज उत्पादन के काम आएगा।






Wednesday, January 27, 2010

२६ जनवरी और १५ अगस्त कब बन पाएंगे दीपावली, ईद, क्रिसमस डे और गुरू पर्व जैसे त्यौहार !

मैं बारबार इस सवाल को उठाता आया हूं कि कब हमारे देष में स्वाधीनता दिवस, 15 अगस्त और गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी जैसे महत्वपूर्ण दिन लोग स्वयस्फूर्त रुप से धूमधाम से मनाऐगें। कब दीपावली, दशहरा, ईद या क्रिसमस डे के बराबर इन राष्ट्रीय पर्वो को तवज्जो दी जाएगी। कल ही का गणतंत्र देख लीजिए। मेरे मोबाइल पर पहली जनवरी से लेकर दीपावली तक में शुभकामना संदेषों से इनबाक्स फूल हो जाता है। एक दिन पहले से ही संदेष आने लगते हैं। पर कल गणतंत्र दिवस का दिन जाते जाते महज दो ही संदेष मिले वह भी मेरे भेजे सेदेषों का प्रत्युत्तर था।

हकीकत में देष में राष्ट्रीय पर्व सरकारी खानापूंिर्त भर रह गए हैं। लोगों के लिए इन दिवसों का महत्व इतना है कि एक अवकाश का दिन बड़ जाता है। देष में कोई त्यौहार ऐसा नहीं होता। जिनमें पूरा परिवार हर्षोउल्लास से न भरा रहता हो। पकवान न बनते हों। पर 15 अगस्त और 26 जनवरी आते हैं और चले जाते हैं।

अगर हम देष को प्रगति के पथ पर ले जाना चाहते हैं, आधुनिक देष बनना चाहते हैं, तो इस महत्वपूर्ण सवाल पर गौर करना जरूरी है। दीपावली, ईद, क्रिसमस डे और गुरू पर्व हमें हिंदु, मुसलमान, सिक्ख और ईसाइ होने का अहसास कराते हैं। लेकिन राष्ट्रीय पर्व हम को भारतीयता का अहसास कराते हैं। अब समय आ गया है कि हम अपने रीति रिवाजों, संस्कारों को नये ढांचे मे ढालें। पर यह कैसे होगा...................................................................?

मेरे एक मित्र ने एक सवाल किया है। गणतंत्र या गणमान्यतंत्र...........?

Monday, January 25, 2010

मिल ही गई राठौर को जमानत, सीबीआई को गिरफ्तारी से चार दिन पहले नोटिस देना होगा !

रुचिका गिरहोत्रा केस में दोषी एसपीएस राठौड़ को पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट से अग्रिम ज़मानत मिल गई है। यही नहीं अब सीबीआई को राठौड़ की गिरफ्तारी से चार दिन पहले नोटिस देना होगा।

न्यायालय ने यह फ़ैसला सोमवार को इस मामले में सुनवाई के बाद सुनाया जो मीडिया के दबाव के बाद दायर हुए थे ।

इन मामलों में राठौर ने अग्रिम ज़मानत के लिए पंचकूला की एक अदालत में याचिका दायर की थी जिसे ख़ारिज़ कर दिया गया था.

राठौर के पंचकूला अदालत के फ़ैसले के बाद उच्च न्यायालय में अपील की थी।

ये मामले रुचिका के भाई आशू की हत्या के प्रयास, ग़लत सबूत रखने और रुचिका की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से छेड़छाड़ करने के हैं.

इसके अलावा रुचिका को आत्महत्या के लिए उकसाने संबंधी एक और एफआईआर दर्ज़ की गई है लेकिन उस पर फिलहाल कार्रवाई शुरु नहीं हुई है।

कुल मिलकर राठौर के पास अभी मुस्कराने के दिन और बचे हैं।

Friday, January 22, 2010

अपनी जमीन में बेगाने मूल निवासी


संयुक्त राष्ट्रसंघ की १४ जनवरी को जारी "दुनिया के देशज लोगों (मूल निवासी) की स्थिति २०१०" रिपोर्ट मूल निवासियों की पीड़ाजनक स्थिति को विस्तार से बताती है। मूल निवासी पूरी दुनिया में गंभीर भेदभाव के शिकार हैं। इनमें गरीबी और अशिक्षा सबसे ज्यादा है। दुनिया में इनकी आबादी ३७ करोड़ है जो कुल आबादी का ५ प्रतिशत है लेकिन दुनिया के गरीबों में इनका हिस्सा १५ प्रतिशत है। दुनिया के ९० करोड़ सर्वाधिक गरीबों में से लगभग एक तिहाई देशज लोग हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के २० प्रतिशत भूभाग में फैले देशज लोग लगभग ५००० विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दुनिया में चल रही शिक्षा व्यवस्था इनकी संस्कृति और भाषा के प्रति सम्मानजनक नजरिया नहीं रखती। परिणाम यह है कि दुनिया में ऐसे शिक्षकों का अभाव है जो इनकी भाषा को जानते हैं। इससे आगामी सौ सालों में जहां इनकी ९० प्रतिशत भाषाओं के खत्म हो जाने की आशंका है, वहीं इनकी भाषा के शिक्षक न मिलना देशज बच्चों की शिक्षा में सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने आ रही है। गरीबी के कारण अधिकांश बच्चे भूखे, बीमार और थके-हारे ही स्कूल जाते हैं। शायद ही कोई बच्चा हो जिसे शिक्षक डराते न हों। इन बच्चों के खिलाफ स्कूल में शारीरिक दंड का उपयोग आम बात है। ग्वाटेमाला में तो १५ से १९ साल के आधे से अधिक किशोर ऐसे पाए गए जिन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं की थी।

स्वास्थ्य के मामले में इनकी स्थिति और भी खराब है। ५० प्रतिशत वयस्क देशज मधुमेह की बीमारी से ग्रसित हैं। गरीबी के कारण कुपोषण से लेकर क्षयरोग, एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के सर्वाधिक मामले इन्हीं समुदाय में पाए जाते हैं परंतु इलाज का उचित प्रबंध न होने से जच्चा-बच्चा से लेकर आम मृत्युदर भी इनमें ज्यादा है। परिणामस्वरूप इनकी जीवन प्रत्याशा दर औसत दर से २० साल तक कम है।

नई विकास योजनाएं और नई तकनीक का इस्तेमाल जैसे बांधों का निर्माण, खेती में आधुनिक बीज, खाद और कीटनाशक आदि का उपयोग इन्हें अपनी जमीन व संस्कृति से बड़े पैमाने पर बेदखल कर रहा है। कहने को लगभग सभी देशों ने इनके जमीन के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाए हैं, जो कागजों तक ही सीमित रहते हैं। जहां इन्हें विकास योजनाओं के नाम पर अपनी जमीन से बेदखल किया जा रहा है वहीं इनका मानवाधिकार हनन सबसे बड़ी चिंता का विषय है।


Wednesday, January 20, 2010

तहलका लाया मकोका का मकड़जाल और हमारी बेशर्मी


तहलका का नया अंक (वर्ष 2 अंक 11) बाजार में गया है। अंक में मकोका परमकोका का मकड़जालशीर्षक से कवर स्टोरी है। इसे तैयार करने में तहलका ने 2 माह जांच पड़ताल की है। इसमें मकोका के षिकार 10 लोगो की व्यथा कथा है। स्टोरी में मुबई के पुलिस कमिष्नर डी. शिवानंदन का साक्षात्कार भी है जो दावा कर रहे हैं कि मकोका का कभी गलत इस्तेमाल नहीं हुआ। रिपोर्ट पढ़ने का बाद हकीकत सामने जाती है।

अंक में दिल को छू जाने वाली स्टोरी है इरोम शर्मिला पर शोमा चैधरी की रिपोर्ट जिसका शीर्षक हैषायद यह उन सब मांओ के दूध का कर्ज चुका रही है इस शीर्षक का कारण आपको रिपोर्ट के दो पेज पड़ने के बाद मिलेगा। जो यहां बताना उचित नहीं रहेगा। जिसे जानना दिलचस्प है। एक भाई और बहन के रिष्ते क्या हो सकते हैं। इसे इरोम और उसके भाई के रिष्ते से जाना सकता है। कवर पेज पर इस लेख का शीर्षक हैइरोम शर्मिला और हमारी बेशर्मी’ इस लेख की सबसे प्रभावित करने वाली लाइन है। ‘‘इरोम शर्मिला असीम हिंसा का उत्तर असीम शंाति से दे रही हैं।’‘
बेलाग लपेट में कबीर सुमन की साफगोई है। संजय दूबे का कालम एक महत्वपूर्ण सवाल को उठाता है। मतदान अनिवार्य करने वाले विधेयक को पारित करते समय सभी विधायक गुजरात की विधानसभा में उपस्थित नहीं थे।
इन दिनोंमें स्वपन दासगुप्ता का लेख पष्चिम बंगाल के राजनीतिक भविष्य पर विष्लेषण है। लेखक कमोवेष ममता बनर्जी को सिंहासन दे चुके हैं। लेख का शीर्षकसर्वहारा का प्रतिकारहै।
अपने कालम में प्रियदर्षन रुचिका मुददे पर मीडिया की सक्रियता की पीठ थपथपाते हुए उसकी सीमाएं बताते हैं। लेखक उन रुचिकाओं की याद दिला रहे हैं जिनके नाम भी मीडिया नहीं जानता या जानना नहीं चाहता। लेख की कुछ पंक्तियां ‘‘ जो कुछ असुविधाजनक लड़ाईयां हैं, जो कुछ लंबे समय तक लड़नी पड़ सकती हैं, जिनके लिए कुछ कीमत चुकानी पड़ सकती है, उनकी तरफ से मीडिया बड़ी आसानी से आंख मंूद लेता है......’’

और बहुत कुछ है अंक में ............................. अंतिम पेज में छपने वाली आपबीती आपको बताती है कि ‘‘एक ही बात है, अखबार बेचो चाहे लिखो’’

इस ब्लाग पर आगे से तहलका हिंदी के सभी अंकों के बारे में जानकारी दी जाएगी।

Monday, January 18, 2010

ज्योति बाबु को श्रद्धांजलि के नाम पर अपमान: देश में श्रद्धांजलि एक अवसरवादिता तो नहीं है ?




लगातार 23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु का 95 साल की उम्र में निधन हो गया। ज्योति बसु का निधन राष्ट्र के लिए अपूरणीय क्षति है । ज्योति बसु के निधन पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत कई नेताओं और पत्रकारों ने शोक व्यक्त किया है। दुखद पहलू यह है कि इस मौके पर सभी नेता परंपरा के अनुसार अवसरवादिता दिखाने से नहीं चुके। उन्हें श्रधांजलि के नाम पर उनके जीवन भर की कमाई को भी स्वाह कर दिया। आमतौर पर समाज में यह होता है कि आप दुखी हों या नहीं, अपूरणीय क्षति हो या नहीं आप को ऐसा कहना ही है। पूर्व पी एम नरसिम्हा राव के देहांत के बाद भी सबने उन्हे महान नेता बताया था। यहाँ ज्योति बाबु के देहांत के बाद की प्रकिक्रिया सवाल के साथ दी जा रही है ;-

''मैं महत्वपूर्ण पदों पर अक्सर ज्योति बसु से सलाह लिया करता था, जो हमेषा व्यवहारिक हुआ करती थी। ''
मनमोहन सिंह
सवाल : इनका सबसे बड़ा योगदान नई आर्थिक नीति प्रारंभ करने में है। क्या ज्योति बसु ने नई आर्थिक नीति लागू करने की सलाह दी थी ?

''बसु देष के कददावर राजनीतिक शख्सियत थे। वह वाम मोर्चा सरकार और वाम आंदोलन का पहला और आखिरी अध्याय थे। ''
ममता बनर्जी
सवाल : क्या उस नेता को महान नेता कहा जा सकता है जिसकेसाथ ही आंदोलन का अध्याय बंद हो जाए? जो एक भी ऐसा नेता विकसित न कर पाया हो जो उसके आंदोलन केा आगे बढ़ा सके?
''वैचारिक रुप से वे ज्यादा कम्युनिस्ट नहीं थे।''
स्वपनदास गुप्ता
सवाल : ये वरिष्ठ पत्रकार है इनका यह कहना ज्योति बाबू का अपमान है या सम्मान!

ज्योति बसु : एक जननेता का सफरनामा

-आठ जुलाई 1914 को कोलकाता में जन्म.

- 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य बने.

- 1952-57 तक पार्टी की पश्चिम बंगाल इकाई के सचिव रहे.

- पहली बार 1946 में बंगाल विधानसभा के लिए चुने गए.

- आज़ादी के बाद 1952, 1957, 1962, 1967, 1969, 1971, 1977, 1982, 1987, 1991 और 1996 में विधानसभा के सदस्य रहे.

- 1957 से 1967 तक विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे.

- 21 जून 1977 को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने.

- स्वास्थ्य कारणों से छह नवंबर 2000 को मुख्यमंत्री पद छोड़ा.

-१७ जनवरी 2010 को देहांत।

Friday, January 15, 2010

अमेरिकी सैनिकों के आत्महत्या करने का सिलसिला जरी ....


अफगानिस्तान और ईराक में लड़ रहे अमेरिकी सैनिक हताशा में आत्महत्या कर रहे हैं बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद भी यह सिलसिला नहीं थमा है मैंने अपनी पिछली पोस्ट में इसकी संख्या ३१ अक्टूबर तक २११ बताई थी इस बीच इसमें और वृधि हुई है यह आंकड़ा अब ३३४ हो गया है यह भी २००९ का अभी अंतिम आंकड़ा नहीं है

Wednesday, January 13, 2010

हेती में भूकंप: हज़ारों के मारे जाने की आशंका




कैरिबियाई देश हेती में आए 7.3 क्षमता के भूकंप ने भारी तबाही मचाई है और इसमें हज़ारों लोगों के मारे जाने की आशंका जताई गई है.

ख़बरों में कहा गया है कि राजधानी पोर्ट-ओ-प्रिंस के मध्य को बुरी तरह नुक़सान पहुँचा है और भूकंप के बाद कई जगहों से आग लगने की ख़बरें हैं.

जिन इमारतों को ज़्यादा क्षति पहुँची है उनमें अस्पताल, राष्ट्रपति का आवास और संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन के मुख्यालय की इमारत शामिल है।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक हेती में पूरी तबाही का सही-सही अनुमान लगाना कठिन हो रहा है क्योंकि संचार के माध्यम भी ठप्प पड़ गए हैं.

प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि मंगलवार की शाम को आए भूकंप के बाद वहाँ अफ़रातफ़री का माहौल था और आसमान में धूल दिखाई दे रही थी और चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं.

अब वहाँ रात है और राजधानी में अंधेरा है और हज़ारों लोग सड़कों पर बैठे हुए हैं क्योंकि उनके पास ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ वे जा सकें।

भारी नुक़सान की आशंका

भूकंप का केंद्र राजधानी पोर्ट-ओ-प्रिंस से 15 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में था। पहले 7.3 क्षमता का भूकंप आया और इसके बाद 5.9 और 5.5 तीव्रता के दो झटके और लगे.

अमरीकी भूगर्भ विभाग के अनुसार जब भूकंप का पहला झटका आया तो स्थानीय समय के अनुसार शाम को चार बजकर 53 मिनट हुए थे.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने हेती से ख़बर दी है कि 'मलबों के नीचे अभी भी बहुत से लोग फँसे हुए हैं'.

Monday, January 11, 2010

विनोद दुआ की धारणा का खंडन करता प्रियदर्शन का लेख

आतंकवाद को रोकने के उपायों पर देष में बहस चलती रहती है। इसके लिए सबसे कारगर उपाय देष में सुरक्षा को बढ़ना, प्रमुख स्थलों पर जांच के नियमों को कड़ा करना आम तौर पर गिनाए जाते हैं। दिल्ली के अनेकों स्थानों पर ऐसे उपाय अपनाये भी जा रहे हैं। पर इन जांचों से कोई फर्क पड़ा हो यह कहना मुष्किल है। हां, जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद का अमेरिका ने जांच कर अपमान किया, षाहरुख को घंटो प्लेटफार्म पर बेवजह रोक दिया तब कुछ लोगों का कहना था कि सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था।

ऐसे लोगों की सूची में एनडीटीवी पर अपने कार्यक्रम ‘विनोद दुआ लाइव’ में विनोद दुआ भी अमेरिका की इस सुरक्षा व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं। उनकी अधिकांष बातों का पक्षधर होने के बावजूद उनकी यह बात मेरी समझ से परे है कि वे क्यों यह मानते हैं कि इसी वजह से अमेरिका में दोबारा आतंकी हमला नहीं हुआ। वजह जो भी हैं पर उनकी इसी धारणा का खंडन एनडीटीवी के समाचार संपादक प्रियदर्शन ने तहलका में अपने एक लेख में किया है। यह संयोग भी हो सकता है और हो सकता है विनोद दुआ का कई मर्तबा अपने कार्यक्रम में इस बात को दोहराने के कारण प्रियदर्शन अपने लेख में इस बात पर लिखना मुनासिब समझा हो। पिय्रदर्षन लिखते हैं ‘‘ हमारे लिए समझने की जरूरत यही है कि 26/11- यानी मुंबई पर हुए हमले- 9/11 नहीं हैं. अमेरिका में आतंक की तारीख एक है, हमारे पास ऐसी तारीखें लगातार जमा होती गई हैं- हमारे कई 9/11 हैं. हमारे लिए मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद, बेंगलुरु , अयोध्या, लखनऊ, रामपुर आदि सिर्फ शहरों के नाम नहीं हैं, आतंकी मंसूबों के नक्शे भी हैं जो हाल के वर्षों में अंजाम दिए जाते रहे. और इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि अमेरिका ने अपनी कानून व्यवस्था दुरुस्त कर ली और हम कर नहीं पाए. दरअसल, भारत और अमेरिका में आतंकवाद की कैफियतें अलग-अलग हैं और जब तक हम उन्हें ठीक से नहीं समझेंगे, अपने यहां के आतंकवाद का खात्मा नहीं कर पाएंगे.

अमेरिका में जिन आतंकियों ने विमानों का अपहरण कर उन्हें अमेरिका के सबसे मजबूत आर्थिक और सामरिक प्रतीकों से टकरा दिया, उनका गुस्सा अमेरिका की वर्चस्ववादी नीतियों और इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका के तथाकथित शत्नुतापूर्ण रवैये से था. इस लिहाज से अल क़ायदा की शाखाएं भले अमेरिका में हों, उसकी जड़ें वहां की जमीन में नहीं हैं. इसलिए अमेरिका के लिए यह आसान था कि वह अपनी सुरक्षा कुछ कड़ी करके, अपने नागरिकों की आजादी छीन कर, अपनी नागरिक स्वतंत्नता के मूल्यों को थोड़ा सिकोड़कर खुद को महफ़ूज कर ले.

भारत के लिए यह काम इतना आसान नहीं है. इसका वास्ता सिर्फ पुलिस और प्रशासन की उस लुंज-पुंज व्यवस्था से नहीं है जिसका अपना वर्गीय चरित्न है और जिसकी वजह से वह या तो मजबूत लोगों के दलाल की तरह काम करती है या फिर कमजोर लोगों के दुश्मन की तरह - इसका वास्ता उस जटिल सामाजिक- राजनीतिक विडंबना से भी है जो बीते 60 साल में बदकिस्मती से भारत में विकसित होती चली गई है.....
पूरा लेख " 26/11 कहने से बात नहीं बनती'' पढने के लिए क्लिक करें:-
http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/aughatghaat/446.html

Saturday, January 9, 2010

अमर सिंह का जाना सपा के लिए फायदेमंद


आखिरकार अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को हाषिये पर पंहुचाकर पार्टी छोड़ने की तैयारी कर ली है। गत सभी चुनाव में निराषाजनक प्रदर्षन करने और एक एक कर कई दिग्गज नेताओं के अमर सिंह से नाराजगी के बाद पार्टी छोड़ने के बाद इसकी पूरी संभावना बन ही रही थी कि या तो अमर खुद किनारा कर लेंगे या मुलायम सिंह उन्हैं आराम की सलाह दे देंगे।
इसलिए अमर सिंह का समाजवादी पार्टी छोड़ना किसी अचरज की बात नहीं है। बल्कि सपा के शुभचिंतकों के लिए यह अच्छी ही खबर है। हांलाकि, बेनी प्रसाद बर्मा, राजबब्बर, जैसे नेताओं के सपा में अब वापस आने की संभाावना कम है, परंतु आजम खान और शाहिद सिददकी जैसे कुछ ऐसे नेता हैं जो पार्टी में वापस आ सकते हैं। हां, सपा अमर सिंह के जाने के बाद अपना राष्ट्रीय चरित्र अवष्य खो सकती है।
पर किसी भी दल के लिए अपनी जड़ो से कटकर विकास करना संभव नहीं होता है। राजनीति के जानकारों को यह आषंका है कि इससे सपा को नुकसान हो सकता है। पर इसकी संभाावना कम ही नजर आती है। पहली वजह तो यह है कि अमर का कोई जनाधार नहीं था। दूसरा अमर सिंह ने सपा का चरित्र पूर्णतः बदल दिया था। हकीकत तो यह है कि अमर सिंह का सपा छोड़ना कांग्रेस और बसपा की परेषानी का सबब बन सकता है। क्योंकि अमर की गैर मौजुदगी में सपा अपने पूराने अंदाज में लौट सकती है।
मुलायम सिंह यूपी की राजनीति के ऐसे शख्स हैं जिनपर अल्पसंखयक सबसे ज्यादा विष्वास करते हैं। कल्याण से दोस्ती, न्यूक्लियर डील का समर्थन करना ऐसे निर्णय थे जिसने सपा से मुस्लिम समुदाय को अलग करने की प्रक्रिया शुरु की थी। कल्याण सिंह वाली गलती तो सपा ने सुधार ली है। न्यूक्लियर डील का समर्थन करने के पीछे अमर सिंह ज्यादा नजर आते हैं। कुल मिलाकर अमर सिंह का सपा से जाना एक मायने में सपा के हित में हो सकता है जबकि कांग्रेस व बसपा के लिए यह खतने की घंटी साबित हो सकता हैं।

Friday, January 8, 2010

बेहतर विकल्प बनती जैविक खेती

रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से की जाने वाली खेती की सीमाएं सामने आने लगी हैं। एक और बड़े पैमाने पर इनके प्रयोग के बावजूद भारत खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सका है दूसरी ओर ऐसी रिपोर्टे भी सामने आ रही हैं कि इन खाद्य पदार्थों को खाकर लोग नाना प्रकार की बीमारीयों के शिकार हो रहे हैं। एक अध्ययन में तो मां के दूध में भी खेती के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक तत्व पाये जाने का मामला सामने आया है। इसके अलावा रासायनिक खाद व कीटनाशको की कीमते बढ़ने से कृषि लागत बढ रही है। और किसान कर्ज के जाल में फंस रहे है। परिणाम इतने दुखद हैं कि किसान आत्महत्या करने तक को मजबूर हो रहे हैं।

इन स्थितियों को देखते हुए आज कृषि में नए विकल्प तलाशे या अपनाए जा रहे हैं। इनमें से एक है जैविक खेती। भारत समेत विश्व स्तर पर जैविक खेती का प्रचलन बढ़ रहा है। अनेक स्वयंसेवी संगठन जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के काम में जुटे हुए हैं। आमतौर पर जैविक खेती को खर्चीला और बढ़ती आबादी के लिए भर पेट भोजन का इंतजाम करने में अक्षम माना जाता है। लेकिन हाल मे ंहुए कई प्रयोगों ने इस धारणा का खंडन किया है। देश में हुए विभिन्न ंप्रयोगों से यह परिणाम सामने आए है कि रासायनिक खाद का प्रयोग करने वाले क्षेत्रों में जैविक खेती प्रारंभ करने से पहले पहल उत्पादकता में कमी जरूर आती है लेकिन धीरे धीरे उत्पादकता बढ़ने लगती है। यहां रेखांकित करने वाला तथ्य यह है कि उत्पादन बढने के साथ ही लागत में कम से कम 15 प्रतिशत की कमी आती है।

देश में जैविक खेती पर काम करने वाली प्रमुख स्वयंसेवी संस्था नवधान्य के शोध भी प्रचलित मान्यताओं के विपरीत यह प्रमाणित करते हैं कि जैविक खेती उच्च उत्पादकता वाली होने के साथ पर्यावरण हितैषी है। नवधान्य का दावा है कि जैविक खेती केवल सुरक्षित, पोष्टिक और स्वादिष्ट भोजन का जरिया ही नहीं बल्कि पृथ्वी और किसानों को बचाने के साथ दुनिया में व्याप्त भूख व गरीबी की समस्या का एक मात्र समाधान है। स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ भारत सरकार ने भी जैविक खेती के महत्व को स्वीकार किया है। जैविक खेती को बढ़ाने के लिए 2003 में केंद्र सरकार द्वारा जैविक कृषि राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की गई।

विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप देश में जैविक खेती का रकबा निरंतर बढ़ रहा है। 2008 में जैविक खेती का रकबा 8.65 लाख हेक्टेयर था जो कि 2009 मे करीब 40 प्रतिशत बढ़कर 12 लाख हेक्टेयर हो गया है। अनुमान है कि 2012 तक देश में 20 लाख हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती होने लगेगी। आज भारत में जैविक उत्पादों का 550 करोड़ का बाजार है। फिलहाल देश से प्रतिवर्ष 450 करोड़ रुपए के जैविक खाद्य पदार्थो का निर्यात किया जाता है। जो कि वैश्विक कारोबार का महज 0.2 प्रतिशत है। उम्मीद है कि जैविक खेती के रकबे के बढ़ने के साथ ही इसके निर्यात में भी वृद्धि होगी और 2012 तक भारत से करीबन 4500 करोड़ रुपऐ के जैविक खाद्यान्नों का निर्यात हो सकेगा।

Wednesday, January 6, 2010

पत्रकारिता का पेशा हुआ जोखिम भरा, 2009 में 121 पत्रकारों की हत्या

पत्रकारिता जोखिम भरा काम बनता जा रहा है। ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2009 में दुनिया में 121 पत्रकार मारे गये। सबसे ज्यादा पत्रकार युद्ध और चुनाव के दौरान मारे जाते हैं। पत्रकारों पर हमले के मामले निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। 2008 में 91 पत्रकार मारे गये थे। इस बार सबसे ज्यादा पत्रकार फीलिपींस में (38) मार गये हैं। यह आंकडे़ प्रेस एम्बलेम कम्पेन द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक हैं।

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक पत्रकारों के अपहरण और शारीरिक हमले के मामले भी बड़ रहे हैं। 2008 में 29 पत्रकारों का अपहरण किया गया था जबकि 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 33 हो गई है। गत वर्ष पत्रकारों पर हमले की 929 वारदातें सामने आईं थी जबकि 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 1456 हो गई।

ओबामा के ड्रोन से 2009 में 708 पाक नागरिको की मौत


दुनिया में परिवर्तन के पर्याय बने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक साल के कार्यकाल में अमेरिका के ड्रोन हमलों में 31 दिसम्बर तक पकिस्तान में 700 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं। यानि शांति के नोबल पुरष्कार से सम्मानित ओबामा के ड्रोन प्रतिदिन 2 नागरिकों को मौत के घाट उतार रहे हैं।

पाकिस्तान के एक समाचार पत्र द्वारा जारी आंकडो में 2009 में 708 नागरिक मारे गये। रिर्पोट में कहा गया है कि ड्रोन हमलों 90 प्रतिषत सामान्य नागरिका मारे जाते हैं। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। प्रति ड्रोन हमले में करीब 140 नागरिक मारे जाते हैं। 2009 में अमेरिका ने 44 ड्रोन हमले किया थे। नागरिकों की मौत के अलावा सैकड़ों की संख्या में नागरिक हताहत होते हैं। बच्चे अनाथ होेते हैं।

Saturday, January 2, 2010

ईश-निंदा के क़ानून को चुनौती

आयरलैंड में नास्तिकों के एक समूह ने अपनी वेबसाइट पर धर्म-विरोधी टिप्पणियाँ छापकर कर ईश-निंदा के नए क़ानून को चुनौती दी है.

'ऐथीस्ट आयरलैंड' नामक संस्था का कहना है कि वो किसी भी कार्रवाई के ख़िलाफ़ अदालती लड़ाई लड़ने को तैयार है.

वेबसाइट पर जिन टिप्पणियों को प्रकाशित किया गया है उनमें मार्क ट्वेन और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों के शब्दों के साथ-साथ ईसा मसीह, पैग़ंबर मोहम्मद और पोप बेनेडिक्ट-16वें के शब्द भी हैं. वेबसाइट पर 25 टिप्पणियाँ प्रकाशित की गई हैं.

नए क़ानून के तहत ईश-निंदा को अपराध की श्रेणी में रखा गया है और इसके दोषी को 35 हज़ार डॉलर तक का जुर्माना हो सकता है.

सरकार का कहना है कि नए क़ानून की आवश्यकता इसलिए थी क्योंकि संविधान के मुताबिक़ केवल ईसाई मज़बह को ही क़ानूनी संरक्षण प्राप्त था.

नया विधेयक जुलाई 2009 में पारित हुआ था और यह एक जनवरी को लागू हो गया है.

'धर्मनिरपेक्ष संविधान की कोशिश'

ऐथीस्ट आयरलैंड ने अपने अभियान के बारे में कहा कि उसका मक़सद है कि नए क़ानून को हटाकर एक 'सेकुलर' यानी धर्मनिरपेक्ष संविधान अपनाया जाए.

लंदन स्थित गार्डियन समाचारपत्र के अनुसार ऐथिस्ट आयरेलैंड के अध्यक्ष माइकल नगेंट का कहना है कि यदि उन पर ईश-निंदा का आरोप लगाया जाता है तो वो नए क़ानून को अदालत में चुनौती देंगे.

नगेंट ने कहा, "ये नया क़ानून हास्यास्पद और ख़तरनाक है."

नगेंट के अनुसार ये हास्यास्पद इसलिए है क्योंकि इस आधुनिक समय में मध्यकालीन धार्मिक क़ानूनों के लिए कोई जगह नहीं है.

उनका मानना है कि फ़ौजदारी क़ानून लोगों की रक्षा कर सकता है, लेकिन विचारों की रक्षा नहीं कर सकता.

ऐथीस्ट आयरलैंड का कहना है कि नए क़ानून के विरोध में वो अपना अभियान चलाने के लिए देश भर में जलसे-जुलूस करेंगे।

स्रोत : bbchindi