Friday, May 14, 2010

गाली प्रक्ररण : गडकरी ने साबित कर दिया क़ि वे पक्के संघीय हैं

भारतीय सस्कृति की वाहक भाजपा के अध्यक्स नितिन गडकरी ने बीते दिनों जिस शुद्ध संसदीय भाषा का इस्तेमाल किया उसने प्रमाणित कर दिया है क़ि गडकरी पक्के संघीय हैं. और राष्ट्रीय राजनीति में आरएसएस के मूल्यों को स्थापित करेंगे. आर आर एस को शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए की वह इतने संस्कारवान नेताओं को दिल्ली भेज रहा है.

Friday, April 30, 2010

खाद्यान्न भंडारण का वही पुराना राग

खाघ संकट के लिए आमतौर पर कृषि उपज में कमी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। पर देश के किसानों ने इस बार दो फसलों आलू और गेहूं का पर्याप्त उत्पादन किया है। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि किसानों की अथक मेहतन से तैयार फसल के सुरक्षित भंडारण की समुचित व्यवस्था देश में नहीं है। शीतगृहों के अभाव में आलू भंडारण संकट का मामला शांत भी नहीं हुआ था कि भारतीय खाघ निगम (एफसीआई) के पास गेहूं भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था न होने की बात सामने आ रही है। सही मायने में देश में भंडारगृहों और शीतगृहों की कमी का खामियाजा देश के किसानों को ही भुगतना पड़ता है। देश में बीते साल के 314 लाख टन की तुलना में इस साल 327 लाख टन आलू उत्पादन हुआ है। देश के किसान इस वक्त आलू के दाम अच्छे न मिलने के कारण नवम्बर तक आलू शीतगृहों में रखते हैं। लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में शीतगृहों की संख्या 5400 है, जिनकी क्षमता महज 240 लाख टन भंडारण की है। इनमें सर्वाधिक शीतगृह उत्तर प्रदेश में हैं। इनकी क्षमता भी 97 लाख टन है जबकि राज्य में 125 लाख टन आलू की पैदावार हुई है। इसी प्रकार दूसरे सबसे बड़े आलू उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल में महज 402 शीतगृह हैं। ये गत वर्ष उत्पादित 52 लाख टन आलू के लिए भी पर्याप्त नहीं थे जबकि इस साल आलू उत्पादन करीब 100 लाख टन है। भंडारण के अभाव में आलू उत्पादक कौड़ियों के भाव आलू बेचने को मजबूर हुए। किसानों को देश के कुछ इलाकों में तो आलू का भाव एक रूपए प्रति किलो से भी कम मिला। कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के अनुसार पश्चिम बंगाल में 2.80 रूपए और उत्तर प्रदेश में 3.10 रूपए प्रति किलो आलू है। यह भाव भी आलू उत्पादन में लगने वाली औसत लागत से कम है। देश में प्रति किलो आलू उत्पादन की लागत 3.50 रूपए आती है। आलू उत्पादकों का संकट अभी टला भी नहीं था कि अब यही कहानी गेहूं उत्पादकों के साथ दोहराई जा रही है। गौरतलब है कि इस बार देश में गेहूं की पैदावार अच्छी होने का अनुमान है। गेहूं एक अप्रैल से ही मंडियों में बिकने के लिए आने लगा है। गेहूं उत्पादक अधिकांश राज्यों में किसानों को मंडियों में गेहूं खरीद के लिए इंतजार करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश में सरकारी खरीद का सही प्रबंध न होने के कारण राज्य के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे गेहूं बेचने को मजबूर हैं। प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य हरियाणा व पंजाब में भारी मात्रा में गेहूं खरीदने वाली कारगिल, अदानी और आइटीसी जैसी बड़ी कम्पनियों ने इस बार हाथ पीछे खींच लिए हैं। इन राज्यों के मिल मालिक उत्तर प्रदेश से गेहूं खरीद रहे हैं। नतीजन, किसानों को पूरा गेहूं सरकारी एजेंसियों को ही बेचना होगा। दोनों राज्यों का 185 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य है। लेकिन इन राज्यों में भंडारण की क्षमता महज 125 लाख टन की है। ऐसे में 60 लाख टन गेहूं कहां रखा जाएगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है। मध्यप्रदेश में 45 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य रखा गया है जबकि राज्य में भंडारण व्यवस्था महज 23.9 लाख टन की है। राजस्थान की पिछले साल के 10 लाख टन गेहूं खरीद की तुलना में इस सीजन में 7 लाख टन गेहूं खरीदने की योजना है। यहां भी गेहूं भंडारण के लिए सरकार निजी क्षेत्र के गोदामों को किराए पर ले रही है। ऐसे में चालू सीजन में देश भर में 262.67 लाख टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य पूरा होने पर यह कहां रखा जाएगा यह चिंता का विषय है। तय है कि सरकारी एजेंसियां खरीद भी लेती हैं तो यह गेहूं आम आदमी तक पहुंचने की बजाए खुले आसमान के नीचे सड़ेगा। देश को अनाज, फल व सब्जियां सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर भंडारगृहों और शीतगृहों की आवश्यकता है। इस समय एफसीआई की कुल भंडारण क्षमता 284.50 लाख टन मात्र है। हाल में एफसीआई ने आगामी डेढ़ साल में अनाज भंडारण क्षमता 126 लाख टन बढ़ाने की योजना बनाई है। हांलाकि इसके बाद भी भंडारण की व्यवस्था पूरी नहीं हो पाएगी। फिक्की के एक आकलन के मुताबिक शीतगृहों की कमी से देश में 30 ये 35 प्रतिशत यानी 600 लाख टन फल-सब्जियां प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाती हैं, जिनकी कीमत करीब 58,000 करोड़ रूपये बैठती है। एक अन्य आकलन के मुताबिक उत्पादन के बाद आम उपभोक्ता के पास पहुंचने तक देश में ढुलाई और भंडारण की उचित व्यवस्था के अभाव में 30 प्रतिशत से अधिक अनाज बर्बाद हो जाता है। दुनिया में सर्वाधिक भूखों वाले देश में इतना अनाज बर्बाद हो जाना गंभीर अपराध नहीं तो और क्या है!

Sunday, April 11, 2010

सजा-ए-मौत और सैकड़ों सवाल

दुनिया से मृत्युदंड की सजा के उन्मूलन के प्रयास धीरे-धीरे रंग ला रहे हैं। मानवाधिकार पर काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित अनेक मानवाधिकार संस्थाएं इसके उन्मूलन के लिए सालों से अभियान संचालित कर रही हैं। दरअसल, मृत्युदंड की सजा को जीने के सहज अधिकार के खिलाफ माना जाता है। इसके अलावा इसे अमानवीय व अपमानजनक सजा रूप में देखा जाता है। वर्ष 1977 से इसके खिलाफ एमनेस्टी अभियान चला रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा वर्ष 2009 में मौत की सजाओं पर जारी ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि 2009 में 18 देशों में 714 लोगों को मौत की सजा दी गई, जबकि 56 देशों में कम से कम 2,001 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। इन आंकड़ों में चीन की संख्या शामिल नहीं है, क्योंकि चीन सरकार मौत के आंकडे़ जारी नहीं करती और मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होने के कारण भी इस संदर्भ में सही-सही जानकारी बाहर नहीं आ पाती है। जबसे एमनेस्टी ने मौत की सजा के आंकडे़ रखना प्रारंभ किया है, यह अब तक की न्यूनतम संख्या है। वर्ष 2008 में मौत की सजा की संख्या में वर्ष 2007 की तुलना में वृद्धि हुई थी, जो पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय था। वर्ष 2009 के 714 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 2,390 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। जबकि वर्ष 2007 में 1,252 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। सजा सुनाने के मामले में भी इस साल कमी आई है। वर्ष 2009 के 2,001 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 8,864 लोगों और वर्ष 2007 में 3347 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। मौत की सजा के उन्मूलन की ओर बढ़ते कदम के रूप में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बुरूंडी और टोगो देश को रेखांकित किया है, जहां वर्ष 2009 में मृत्युदंड की सजा के प्रावधान का पूर्णत: उन्मूलन कर दिया गया। यह दोनों देश मृत्युदंड का उन्मूलन करने वाले दुनिया के क्रमश: 93वें और 94वें देश बन गए। अब तक दो तिहाई देश इस सजा का कानून और व्यवहार में उन्मूलन कर चुके हैं। वर्ष 2009 में ही 58 देशों में सजा का प्रावधान था, लेकिन महज 18 देशों में मौत की सजा दी गई। एमनेस्टी के आंकडे़ रखने के बाद से यह पहला मौका है, जब यूरोप के किसी भी देश में मौत की सजा नहीं दी गई। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि यूरोप में बेलारूस ही एक ऐसा देश है, जहां के कानून में मौत की सजा का प्रावधान है। अमेरिकी देशों में अमेरिका ही ऐसा मुल्क है, जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा का इस्तेमाल किया गया। सब-सहारा अफ्रीकी देशों में केवल बोत्सवाना और सूडान में मौत की सजा दी गई। एशियाई देशों में अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, मंगोलिया और पाकिस्तान में यह पहली मर्तबा हुआ है कि जब किसी भी शख्स को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। रिपोर्ट के मुताबिक मौत की सजा देने और सुनाने दोनों में ही चीन का स्थान पहला है। हालांकि चीन की सही-सही संख्या रिपोर्ट में जारी नहीं की गई है, लेकिन एमनेस्टी का अंदाजा है कि यह संख्या 1,000 से ऊपर हो सकती है। चीन के बाद सजा देने में ईरान का दूसरा स्थान आता है, जहां 388 लोगों को मौत की सजा दी गई। इसके बाद इराक (120), सऊदी अरब (69), संयुक्त राज्य अमेरिका (52) और यमन (30) का स्थान आता है। इसी प्रकार मौत की सजा सुनाने में चीन के बाद इराक का दूसरा स्थान आता है, जहां 366 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। उसके बाद पाकिस्तान (276), मिस्र (269), अफगानिस्तान (133), श्रीलंका (108), संयुक्त राज्य अमेरिका (105) और अल्जीरिया (100) का स्थान आता है। भारत 15वें स्थान पर है, जहां 50 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा के उन्मूलन में कुछ सकारात्मक पहलू देखे गए, वहीं मौत की सजा को अमल में लाने के कुछ ऐसे तरीके अपनाए जा रहे हैं, जो इक्कीसवीं सदी में किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराए जा सकते। चीन में सरेआम गोली मार दी जाती है। सऊदी अरब में गला काट कर सजा-ए-मौत दी जाती है। ईरान में अब भी पत्थर मार-मारकर मौत की सजा देने का प्रचलन है। अमेरिका जैसे आधुनिक मुल्क में बिजली के झटके से मौत की सजा दी जाती है। ज्यादातर मुल्कों में फांसी पर लटका कर मौत की सजा दी जाती है। चीन, थाईलैंड और अमेरिका में प्राणघातक इंजेक्शन का इस्तेमाल मौत की सजा देने के लिए किया जाता है। व्यवहार में देखा गया है कि मौत की सजा का आमतौर पर भेदमूलक इस्तेमाल किया जाता है। इसका प्रयोग गरीबों, अल्पसंख्यकों, विशेष नस्ल के समुदायों के खिलाफ किया जाता है। कई देशों में इसका राजनीतिक उपयोग भी किया जाता है। रिपोर्ट में इसके लिए ईरान का उदाहरण दिया गया है। वर्ष 2009 में ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान 12 जून से 5 अगस्त के बीच महज दो माह में 112 लोगों को मौत की सजा दी गई। रिपोर्ट का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि कई देशों में बाल अपराधियों के खिलाफ भी इस सजा का इस्तेमाल किया जा रहा है। वर्ष 2009 में ईरान और सऊदी अरब में किशोरों को भी फांसी पर चढ़ाया गया। उन्हें भी सजा दी गई, जो अपराध करते समय 18 साल से भी कम आयु के थे। ईरान में ऐसे 7 किशोरों और सऊदी अरब में 5 किशोरों को सजा-ए-मौत दी गई, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सीधा सीधा उल्लंघन है।
(यह लेख आज के दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है )

Thursday, April 8, 2010

सिखों के कत्लेआम के ज़िम्मेदार कमलनाथ जैसे लोगों को छोड़ा नहीं जाएगा: अमेरिका में प्रदर्शन

(भारतीय न्यायपालिका से न्याय क़ि उम्मीद खो चुके सिक्खों ने आज अमेरिका में कमल नाथ के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया . इसमें शामिल लोगो से बी बी सी ने बातचीत की आगे प्रस्तुत है उनसे क़ि गई बातचीत के अंश)



मोहेंदर सिंह ने कमलनाथ के ख़िलाफ़ न्यूयॉर्क की केंद्रीय अदालत में मुक़दमा दायर किया है। मोहिंदर सिंह नेबीबीसी को बताया कि दिल्ली में उनके परिवार के 4 लोगों को बेरहमी से मार दिया गया था.

मोहेंदर सिंह कहते हैं, मेरे पिताजी और दो चाचा को टुकड़े टुकड़े करके जला कर मार डाला गया. हमारे दादाजी नेइतने सालों से अदालतों के चक्कर लगाए लेकिन हमें इंसाफ़ नहीं मिला. हमने 25 साल तक इंतज़ार किया लेकिनकोई नतीजा नहीं निकला. ये लोग ऐसे सुनने वाले नहीं है इसलिए हमे इनको अमरीकी अदालत में घसीटना पड़ा. हम चाहते हैं हमें इंसाफ़ मिले.

इस मुक़दमे में सिखों की ओर से वकील गुरपतवंत पन्नुन का कहना है कि कमलनाथ जैसे लोगों को क़ानून केकटघरे में लाकर सज़ा दिलवाने की हर कोशिश की जाएगी.वकील का कहना है, हमने तय कर लिया है कि सिखोंके कत्लेआम के ज़िम्मेदार कमलनाथ जैसे लोगों को छोड़ा नहीं जाएगा और हम इंसाफ़ लेकर ही दम लेंगे.

इन प्रदर्शनकारियों का यह भी कहना है कि सन 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम को 25 साल हो गए अब इसकेदोषियों को सज़ा दी जानी चाहिए.

दिल्ली के दंगों में मारे गए लोगों में जसबीर सिंह के खानदान के 26 लोग भी शामिल थे.

वह कहते हैं,कमलनाथ ने खड़े होकर खुद उग्र भीड़ का नेतृत्व किया था जिसने गुरूद्वारे में सिखों की हत्या करीऔर गुरूद्वारा रकाबगंज को जलाया. ऐसे कातिलों को मंत्री बनाकर अमरीका भेजकर प्रधानमंत्री क्या संदेश देना चाहते हैं.

जसबीर सिंह कहते हैं कि इतने सालों से विभिन्न आयोगों का गठन किया गया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ.

अब उनको अमरीका में अदालत से कुछ आस है.

सिख फ़ॉर जसटिस नामक संस्था द्वारा आयोजित इस विरोध प्रदर्शन में करीब सौ लोगों ने भाग लिया जिनमें बच्चे, महिलाएं और बूढ़े भी शामिल थे.

बहुत से प्रदर्शनकारियों का यह भी कहना था कि कमलनाथ जैसे लोगों को जिनपर मासूम लोगों के कत्लेआम काइलज़ाम लगा हो अमरीका में प्रवेश की भी आज्ञा नहीं होनी चाहिए.

न्यूयॉर्क के गुरूद्वारा बाबा मख्खंशाह के अध्यक्ष मास्टर महिंदर सिंह का कहना था कि कमलनाथ जैसे लोगों को तोजेल में होना चाहिए कि मंत्री पद पर.

वह कहते हैं,भारत सरकार को चाहिए कि कमलनाथ जैसे मंत्री को निकाल बाहर करें और ढंग के लोग ले आएं. ऐसे लोगों के बग़ैर भी मुल्क चल सकता है. कमलनाथ को तो मंत्री पद से हटाकर उनपर मुक़दमा चलाया जानाचाहिए.


Monday, April 5, 2010

दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जरूरी

भारतीय खानपान में दालों का खास महत्व है। दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला भारतीय समाज के कई समुदायों में मांसाहार वर्जित है, जो अतिरिक्त प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। दूसरा खास कारण यह है कि प्रोटीन के अन्य स्रोतों की तुलना में दालें सस्ती मानी जाती रही हैं। पर बीते सालों में जिस कदर दालों की कीमतें बढ़ी हैं ‘दाल-रोटी खाआ॓ प्रभु के गुण गाआ॓’ वाला मुहावरा निरर्थक साबित हो चुका है। इसकी वजह देश की कृषि नीति में तलाशी जा सकती हैं जिसके कारण दाल उत्पादन देश के किसानों के लिए घाटे का सौदा बन गया है। हरित क्रांति के दौर में गेंहू और धान की उपज दर बढ़ाने पर विशेष जोर दिया गया था। इसमें अच्छी सफलता भी हासिल हुई। इसके अलावा केन्द्र सरकार की खरीद-नीति तथा अन्य समर्थक रणनीति ने भी दोनों प्रमुख खाघान्नों का उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन दाल के मामले में सरकार ने जरूरत से ज्यादा लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई। प्रौघोगिकी व कृषि पद्धति की दृष्टि से भी इसके उत्पादन में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर नहीं आया। न कोई सामयिक योजना बनाई गई और न ही उत्पादकों को कोई अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया गया। इसके अलावा जोखिम एवं लागत खर्च, सरकारी खरीद नीति की गैर मौजूदगी, उन्नत एवं उच्च उपज दर वाली प्रजाति के बीजों की कमी, कृषि क्षेत्र का दयनीय बुनियादी ढांचा दाल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बीजों की बात करें तो देश में धान और गेहूं के 90 प्रतिशत प्रमाणित बीज किसानों को मिल जाते हैं। 40 सालों में राष्ट्रीय बीज कॉरपोरेशन ने दालों के 400 बीज विकसित किए हैं पर इनमें से 124 का ही उपयोग उत्पादन के लिए किया जा रहा है। इनमें से भी 10-12 किस्में ही किसानो को आसानी से मिल पाती हैं। जहां दाल उत्पादन के प्रति सरकार उदासीन रही है वहीं निजी कंपनियां भी इनके अनुसंधान पर पैसा खर्च नहीं करती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि दाल खासकर दक्षिण एशिया की फसल है और निजी बीज कंपनियों को इसमें लाभ नजर नहीं आता। भारत में दाल की औसत उत्पादकता दर 600 किलो प्रति हेक्टेयर है जो संसार के सर्वक्षेष्ठ उपज दर वाले देशों से बहुत पीछे है। कुछ देशों में औसत उपज दर 1800 किलो प्रति हेक्टेयर तक दर्ज की जा रही है। अन्य फसलों और दलहन फसलों में किसानों के लाभ के अंतर को आसानी से समझा जा सकता है। दाल की उपज दर प्रति हेक्टेयर 600 किलो है जबकि धान की 3000 किलो प्रति हेक्टेयर से अधिक। सरकार द्वारा अरहर के लिए 2009-10 में घोषित किया गया न्यूनतम सर्मथन मूल्य (एमएसपी) 2300 रूपए प्रति क्विंटल है। इसी दौरान धान का समर्थन मूल्य 1080 रूपए प्रति क्विंटल। यानी एक हेक्टेयर में दाल उत्पादन करने में किसान को एक लाख 38 हजार रूपए प्राप्त होता है जबकि इतनी ही भूमि पर धान बोने पर 3 लाख 32 हजार प्राप्त होते हैं। यानी दोगुने से ज्यादा। इसके अलावा दलहन की फसल तैयार होने में समय भी ज्यादा लगता है। करीब 8-10 माह में इसकी फसल तैयार होती है जबकि किसान साल में धान और गेहूं की दो फसल ले लेते हैं। दाल की फसल ठंड और गर्मी के प्रति भी ज्यादा संवेदनशीन होती है। भारत में कीड़ों-रोगों के साथ-साथ फसल पोषण का प्रबंधन भी कमजोर और अपर्याप्त है। परिणामस्वरूप उपज दर घट जाती है। रोगों के लगने की संभावना भी दाल की फसल में ज्यादा होती है। जैसे प्रोटीन के कारण इंसान दालों को पंसद करते हैं, कीट भी दालों को पसंद करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 250 कीट दालों को खराब कर देते हैं। परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष 20 लाख टन से अधिक दालें बरबाद हो जाती हैं। इधर सुखद संकेत यह है कि आजादी के साठ साल बाद देश के बजट में दलहन उत्पादन को प्राथमिकता दी गई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने देश में 60 हजार दलहन-तिलहन गांव बनाने के लिए 300 करोड़ का अतिरिक्त बजट आवंटित किया है। हालांकि, जिस कदर किसान दाल उत्पादन से मुंह मोड़ चुके हैं, यह बजट नाकाफी है। दलहन-तिलहन गांव के लिए आंवटित बजट देश के दाल आयात बिल का महज 2.5 प्रतिशत है। दाल उत्पादन के लिए खर्च किए जाने वाली कुल राशि भी आयात बिल का महज 6 प्रतिशत है। दालों के आयात पर देश सलाना 12 हजार करोड़ रूपए व्यय करता है जबकि योजनाओं का कुल सलाना बजट महज 700 करोड़ है। यदि देश को दालों के मामले में आत्मनिर्भर होना है तो दाल आयात का एक हिस्सा दाल उत्पादन में व्यय करना पडे़गा ताकि आने वाले समय में दालों का आयात बजट कम हो और आम आदमी को उचित दाम पर सुगमता से दाल प्राप्त हो।

Saturday, April 3, 2010

कौड़ियों के भाव बिकता आलू


इन दिनों देश के आलू उत्पादक संकट में हैं। बीते साल किसानों को आलू के अच्छे दाम मिले थे। इस साल भी अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद से किसानों ने आलू उत्पादन बढ़ा दिया। पर हुआ वैसा ही जैसा साल दो साल में होता है। फसल आते ही आलू के दाम एकाएक गिर गए। अच्छी कीमत न मिलने के कारण किसान कुछ समय तक आलू कोल्ड स्टोरेज में रखना पसंद करते हैं ताकि बाद में अच्छी कीमत मिल सके। लेकिन देश में आलू भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है जिससे किसान आसानी से आलू कोल्ड स्टोरेज में भी नहीं रख सकते। नतीजा, किसान औने-पौने दाम पर आलू बेचने के लिए मजबूर हैं। दरअसल आलू उत्पादन से किसानों को तत्काल नकद राशि मिल जाती है। इसलिए किसानों के लिए यह लाभ की खेती मानी जाती है और पूरे देश के किसान आलू की खेती करते हैं।

इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि १९६० से २००६ के बीच आलू उत्पादन में ८५० प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। आलू उत्पादन में भारत का विश्व में चीन और रूस के बाद तीसरा स्थान है। भारत प्रतिवर्ष औसतन ३०० लाख टन आलू उत्पादन करता है। भारत में आलू उत्पादन की तुलना में उपभोग बहुत कम होता है। वैश्विक स्तर पर जहाँ ३३ किलोग्राम प्रति व्यक्ति उपभोग होता है वहीं भारत में प्रति व्यक्ति उपभोग १६ से १८ किलोग्राम ही है। इस आधार पर देश की जरूरत २०० लाख टन है। जबकि उत्पादन इससे काफी अधिक। इसलिए आलू अच्छी खासी मात्रा में निर्यात किया जाता है। दो सालों से उत्पादन अच्छा हो रहा है। इस साल उत्पादन ३२७ लाख टन होने का आकलन है जबकि गत वर्ष उत्पादन ३१४ लाख टन था। अधिकांश आलू नवंबर तक कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है। पर देश में कोल्ड स्टोरेज की भारी कमी है। देश में लगभग ३५०० कोल्ड स्टोरेज हैं जिनमें अधिकांश हिस्सा निजी क्षेत्र का है। यानी सरकार कोल्ड स्टोरेज बनाने के प्रति कभी भी सजग नहीं रही है। सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले उत्तरप्रदेश में १९०० कोल्ड स्टोरेज हैं। वहीं सबसे ज्यादा किसानों को इस समस्या से दो-चार होना पड़ता है जिनकी क्षमता ९७ लाख टन आलू रखने की है जबकि अनुमान है कि प्रदेश में इस बार आलू उत्पादन १२५ लाख टन से अधिक होगा। आलू उत्पादन के दूसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल में महज ३९० कोल्ड स्टोरेज हैं। औसतन ५२ लाख टन आलू उत्पादन करने वाले पश्चिम बंगाल में इस साल लगभग १०० लाख टन फसल होने का अनुमान है जो कि गत वर्ष के ५५ लाख टन से लगभग दोगुना है। कोल्ड स्टोरेज अभी से भर गए हैं। परिणाम यह है कि बंगाल के कई इलाकों के किसान आलू एक रुपए किलो बेचने को मजबूर हो रहे हैं। आगरा के किसान आलू १.५० रुपए प्रति किलो बेच रहे हैं। अभी तक देश में आलू के अधिकतम दाम ४२० रुपए क्ंिवटल तक ही गए हैं जबकि आलू उत्पादन की औसत कीमत ३५० रुपए प्रति क्विंटल आती है।



Saturday, March 27, 2010

दाल गलाने की कोशिश


भारत में शाकाहारी वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। देश की खाद्य शैली में दाल प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है। पर बीते सालों में जिस गति से दालों की कीमतें बढ़ी हैं आम आदमी की ही नहीं बल्कि मध्य वर्ग की थाली से भी दाल दूर होती गई है। आसमान छूती कीमतों को नियंत्रित करने में सरकार कई प्रयासों के बावजूद असफल रही। पर दाल संकट की छाया केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत हाल के बजट में भी देखने को मिली। बजट में दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया गया है। दरअसल, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। फिर भी उत्पादित दाल समुचित आपूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होती और देश को विदेश से आयात पर निर्भर रहना पड़ता है।

देश में दाल की खपत लगभग १८० लाख टन है जबकि उत्पादन क्षमता १५० लाख टन तक ही सीमित है। जिस वजह से ३० लाख टन से अधिक दाल आयात करनी पड़ती है। १९९४ में जहां देश ५.८ लाख टन दाल आयात करता था वहीं २००९ में दाल आयात २३ लाख टन पहुंच गया है। गौर करने वाली बात यह है कि देश में बढ़ती जनसंख्या के साथ ही प्रति वर्ष ५ लाख टन दाल की खपत बढ़ रही है। यदि घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए अभी से प्रयास नहीं किए गए तो २०१२ तक देश को प्रतिवर्ष ४० लाख टन दाल आयात करनी पड़ेगी।

घरेलू उत्पादन में कमी और विदेश से ऊंचे भाव में दाल आयात करने के कारण ही दाल की कीमतें लगातार बढ़ी हैं। २००९ में ही दाल की कीमत लगभग दोगुनी हो गई। इसका परिणाम है कि घरों का बजट दाल का खर्च वहन नहीं कर पा रहा है। दाल का उपभोग निरंतर घट रहा है। ४० सालों में प्रति व्यक्ति उपभोग २७ किग्रा प्रतिवर्ष से घट कर ११ किग्रा रह गया है। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सिफारिश है कि प्रति व्यक्ति प्रति दिन ८० ग्राम दाल उपभोग होना चाहिए यानी स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिवर्ष २९ किग्रा से ज्यादा। फिलहाल सुखद संकेत यह है कि दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने अतिरिक्त धन आंवटित किया।

बजट में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में ६०,००० दलहल एवं तिलहन ग्राम बनाने की घोषणा की गई है। हालांकि देश में दाल उत्पादन जिस स्तर पर पहुंच गया है उसमें एक झटके में सुधार नहीं होगा। सरकार की मंशा तभी पूरी हो सकती है जब वह किसानों को दाल उत्पादन में लाभ दिखा सके और किसान दाल की खेती की ओर आकर्षित हों।