Monday, April 5, 2010
दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जरूरी
भारतीय खानपान में दालों का खास महत्व है। दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला भारतीय समाज के कई समुदायों में मांसाहार वर्जित है, जो अतिरिक्त प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। दूसरा खास कारण यह है कि प्रोटीन के अन्य स्रोतों की तुलना में दालें सस्ती मानी जाती रही हैं। पर बीते सालों में जिस कदर दालों की कीमतें बढ़ी हैं ‘दाल-रोटी खाआ॓ प्रभु के गुण गाआ॓’ वाला मुहावरा निरर्थक साबित हो चुका है। इसकी वजह देश की कृषि नीति में तलाशी जा सकती हैं जिसके कारण दाल उत्पादन देश के किसानों के लिए घाटे का सौदा बन गया है। हरित क्रांति के दौर में गेंहू और धान की उपज दर बढ़ाने पर विशेष जोर दिया गया था। इसमें अच्छी सफलता भी हासिल हुई। इसके अलावा केन्द्र सरकार की खरीद-नीति तथा अन्य समर्थक रणनीति ने भी दोनों प्रमुख खाघान्नों का उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन दाल के मामले में सरकार ने जरूरत से ज्यादा लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई। प्रौघोगिकी व कृषि पद्धति की दृष्टि से भी इसके उत्पादन में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर नहीं आया। न कोई सामयिक योजना बनाई गई और न ही उत्पादकों को कोई अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया गया। इसके अलावा जोखिम एवं लागत खर्च, सरकारी खरीद नीति की गैर मौजूदगी, उन्नत एवं उच्च उपज दर वाली प्रजाति के बीजों की कमी, कृषि क्षेत्र का दयनीय बुनियादी ढांचा दाल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बीजों की बात करें तो देश में धान और गेहूं के 90 प्रतिशत प्रमाणित बीज किसानों को मिल जाते हैं। 40 सालों में राष्ट्रीय बीज कॉरपोरेशन ने दालों के 400 बीज विकसित किए हैं पर इनमें से 124 का ही उपयोग उत्पादन के लिए किया जा रहा है। इनमें से भी 10-12 किस्में ही किसानो को आसानी से मिल पाती हैं। जहां दाल उत्पादन के प्रति सरकार उदासीन रही है वहीं निजी कंपनियां भी इनके अनुसंधान पर पैसा खर्च नहीं करती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि दाल खासकर दक्षिण एशिया की फसल है और निजी बीज कंपनियों को इसमें लाभ नजर नहीं आता। भारत में दाल की औसत उत्पादकता दर 600 किलो प्रति हेक्टेयर है जो संसार के सर्वक्षेष्ठ उपज दर वाले देशों से बहुत पीछे है। कुछ देशों में औसत उपज दर 1800 किलो प्रति हेक्टेयर तक दर्ज की जा रही है। अन्य फसलों और दलहन फसलों में किसानों के लाभ के अंतर को आसानी से समझा जा सकता है। दाल की उपज दर प्रति हेक्टेयर 600 किलो है जबकि धान की 3000 किलो प्रति हेक्टेयर से अधिक। सरकार द्वारा अरहर के लिए 2009-10 में घोषित किया गया न्यूनतम सर्मथन मूल्य (एमएसपी) 2300 रूपए प्रति क्विंटल है। इसी दौरान धान का समर्थन मूल्य 1080 रूपए प्रति क्विंटल। यानी एक हेक्टेयर में दाल उत्पादन करने में किसान को एक लाख 38 हजार रूपए प्राप्त होता है जबकि इतनी ही भूमि पर धान बोने पर 3 लाख 32 हजार प्राप्त होते हैं। यानी दोगुने से ज्यादा। इसके अलावा दलहन की फसल तैयार होने में समय भी ज्यादा लगता है। करीब 8-10 माह में इसकी फसल तैयार होती है जबकि किसान साल में धान और गेहूं की दो फसल ले लेते हैं। दाल की फसल ठंड और गर्मी के प्रति भी ज्यादा संवेदनशीन होती है। भारत में कीड़ों-रोगों के साथ-साथ फसल पोषण का प्रबंधन भी कमजोर और अपर्याप्त है। परिणामस्वरूप उपज दर घट जाती है। रोगों के लगने की संभावना भी दाल की फसल में ज्यादा होती है। जैसे प्रोटीन के कारण इंसान दालों को पंसद करते हैं, कीट भी दालों को पसंद करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 250 कीट दालों को खराब कर देते हैं। परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष 20 लाख टन से अधिक दालें बरबाद हो जाती हैं। इधर सुखद संकेत यह है कि आजादी के साठ साल बाद देश के बजट में दलहन उत्पादन को प्राथमिकता दी गई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने देश में 60 हजार दलहन-तिलहन गांव बनाने के लिए 300 करोड़ का अतिरिक्त बजट आवंटित किया है। हालांकि, जिस कदर किसान दाल उत्पादन से मुंह मोड़ चुके हैं, यह बजट नाकाफी है। दलहन-तिलहन गांव के लिए आंवटित बजट देश के दाल आयात बिल का महज 2.5 प्रतिशत है। दाल उत्पादन के लिए खर्च किए जाने वाली कुल राशि भी आयात बिल का महज 6 प्रतिशत है। दालों के आयात पर देश सलाना 12 हजार करोड़ रूपए व्यय करता है जबकि योजनाओं का कुल सलाना बजट महज 700 करोड़ है। यदि देश को दालों के मामले में आत्मनिर्भर होना है तो दाल आयात का एक हिस्सा दाल उत्पादन में व्यय करना पडे़गा ताकि आने वाले समय में दालों का आयात बजट कम हो और आम आदमी को उचित दाम पर सुगमता से दाल प्राप्त हो।
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1 comment:
सामयिक,सारगर्भित व तथ्यपरक प्रस्तुति।
www.upchar.blogspot.com
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