Monday, January 11, 2010

विनोद दुआ की धारणा का खंडन करता प्रियदर्शन का लेख

आतंकवाद को रोकने के उपायों पर देष में बहस चलती रहती है। इसके लिए सबसे कारगर उपाय देष में सुरक्षा को बढ़ना, प्रमुख स्थलों पर जांच के नियमों को कड़ा करना आम तौर पर गिनाए जाते हैं। दिल्ली के अनेकों स्थानों पर ऐसे उपाय अपनाये भी जा रहे हैं। पर इन जांचों से कोई फर्क पड़ा हो यह कहना मुष्किल है। हां, जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद का अमेरिका ने जांच कर अपमान किया, षाहरुख को घंटो प्लेटफार्म पर बेवजह रोक दिया तब कुछ लोगों का कहना था कि सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था।

ऐसे लोगों की सूची में एनडीटीवी पर अपने कार्यक्रम ‘विनोद दुआ लाइव’ में विनोद दुआ भी अमेरिका की इस सुरक्षा व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं। उनकी अधिकांष बातों का पक्षधर होने के बावजूद उनकी यह बात मेरी समझ से परे है कि वे क्यों यह मानते हैं कि इसी वजह से अमेरिका में दोबारा आतंकी हमला नहीं हुआ। वजह जो भी हैं पर उनकी इसी धारणा का खंडन एनडीटीवी के समाचार संपादक प्रियदर्शन ने तहलका में अपने एक लेख में किया है। यह संयोग भी हो सकता है और हो सकता है विनोद दुआ का कई मर्तबा अपने कार्यक्रम में इस बात को दोहराने के कारण प्रियदर्शन अपने लेख में इस बात पर लिखना मुनासिब समझा हो। पिय्रदर्षन लिखते हैं ‘‘ हमारे लिए समझने की जरूरत यही है कि 26/11- यानी मुंबई पर हुए हमले- 9/11 नहीं हैं. अमेरिका में आतंक की तारीख एक है, हमारे पास ऐसी तारीखें लगातार जमा होती गई हैं- हमारे कई 9/11 हैं. हमारे लिए मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद, बेंगलुरु , अयोध्या, लखनऊ, रामपुर आदि सिर्फ शहरों के नाम नहीं हैं, आतंकी मंसूबों के नक्शे भी हैं जो हाल के वर्षों में अंजाम दिए जाते रहे. और इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि अमेरिका ने अपनी कानून व्यवस्था दुरुस्त कर ली और हम कर नहीं पाए. दरअसल, भारत और अमेरिका में आतंकवाद की कैफियतें अलग-अलग हैं और जब तक हम उन्हें ठीक से नहीं समझेंगे, अपने यहां के आतंकवाद का खात्मा नहीं कर पाएंगे.

अमेरिका में जिन आतंकियों ने विमानों का अपहरण कर उन्हें अमेरिका के सबसे मजबूत आर्थिक और सामरिक प्रतीकों से टकरा दिया, उनका गुस्सा अमेरिका की वर्चस्ववादी नीतियों और इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका के तथाकथित शत्नुतापूर्ण रवैये से था. इस लिहाज से अल क़ायदा की शाखाएं भले अमेरिका में हों, उसकी जड़ें वहां की जमीन में नहीं हैं. इसलिए अमेरिका के लिए यह आसान था कि वह अपनी सुरक्षा कुछ कड़ी करके, अपने नागरिकों की आजादी छीन कर, अपनी नागरिक स्वतंत्नता के मूल्यों को थोड़ा सिकोड़कर खुद को महफ़ूज कर ले.

भारत के लिए यह काम इतना आसान नहीं है. इसका वास्ता सिर्फ पुलिस और प्रशासन की उस लुंज-पुंज व्यवस्था से नहीं है जिसका अपना वर्गीय चरित्न है और जिसकी वजह से वह या तो मजबूत लोगों के दलाल की तरह काम करती है या फिर कमजोर लोगों के दुश्मन की तरह - इसका वास्ता उस जटिल सामाजिक- राजनीतिक विडंबना से भी है जो बीते 60 साल में बदकिस्मती से भारत में विकसित होती चली गई है.....
पूरा लेख " 26/11 कहने से बात नहीं बनती'' पढने के लिए क्लिक करें:-
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