दुनिया से मृत्युदंड की सजा के उन्मूलन के प्रयास धीरे-धीरे रंग ला रहे हैं। मानवाधिकार पर काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित अनेक मानवाधिकार संस्थाएं इसके उन्मूलन के लिए सालों से अभियान संचालित कर रही हैं। दरअसल, मृत्युदंड की सजा को जीने के सहज अधिकार के खिलाफ माना जाता है। इसके अलावा इसे अमानवीय व अपमानजनक सजा रूप में देखा जाता है। वर्ष 1977 से इसके खिलाफ एमनेस्टी अभियान चला रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा वर्ष 2009 में मौत की सजाओं पर जारी ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि 2009 में 18 देशों में 714 लोगों को मौत की सजा दी गई, जबकि 56 देशों में कम से कम 2,001 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। इन आंकड़ों में चीन की संख्या शामिल नहीं है, क्योंकि चीन सरकार मौत के आंकडे़ जारी नहीं करती और मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होने के कारण भी इस संदर्भ में सही-सही जानकारी बाहर नहीं आ पाती है। जबसे एमनेस्टी ने मौत की सजा के आंकडे़ रखना प्रारंभ किया है, यह अब तक की न्यूनतम संख्या है। वर्ष 2008 में मौत की सजा की संख्या में वर्ष 2007 की तुलना में वृद्धि हुई थी, जो पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय था। वर्ष 2009 के 714 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 2,390 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। जबकि वर्ष 2007 में 1,252 लोगों को मौत की सजा दी गई थी। सजा सुनाने के मामले में भी इस साल कमी आई है। वर्ष 2009 के 2,001 लोगों की तुलना में वर्ष 2008 में 8,864 लोगों और वर्ष 2007 में 3347 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। मौत की सजा के उन्मूलन की ओर बढ़ते कदम के रूप में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बुरूंडी और टोगो देश को रेखांकित किया है, जहां वर्ष 2009 में मृत्युदंड की सजा के प्रावधान का पूर्णत: उन्मूलन कर दिया गया। यह दोनों देश मृत्युदंड का उन्मूलन करने वाले दुनिया के क्रमश: 93वें और 94वें देश बन गए। अब तक दो तिहाई देश इस सजा का कानून और व्यवहार में उन्मूलन कर चुके हैं। वर्ष 2009 में ही 58 देशों में सजा का प्रावधान था, लेकिन महज 18 देशों में मौत की सजा दी गई। एमनेस्टी के आंकडे़ रखने के बाद से यह पहला मौका है, जब यूरोप के किसी भी देश में मौत की सजा नहीं दी गई। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि यूरोप में बेलारूस ही एक ऐसा देश है, जहां के कानून में मौत की सजा का प्रावधान है। अमेरिकी देशों में अमेरिका ही ऐसा मुल्क है, जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा का इस्तेमाल किया गया। सब-सहारा अफ्रीकी देशों में केवल बोत्सवाना और सूडान में मौत की सजा दी गई। एशियाई देशों में अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, मंगोलिया और पाकिस्तान में यह पहली मर्तबा हुआ है कि जब किसी भी शख्स को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। रिपोर्ट के मुताबिक मौत की सजा देने और सुनाने दोनों में ही चीन का स्थान पहला है। हालांकि चीन की सही-सही संख्या रिपोर्ट में जारी नहीं की गई है, लेकिन एमनेस्टी का अंदाजा है कि यह संख्या 1,000 से ऊपर हो सकती है। चीन के बाद सजा देने में ईरान का दूसरा स्थान आता है, जहां 388 लोगों को मौत की सजा दी गई। इसके बाद इराक (120), सऊदी अरब (69), संयुक्त राज्य अमेरिका (52) और यमन (30) का स्थान आता है। इसी प्रकार मौत की सजा सुनाने में चीन के बाद इराक का दूसरा स्थान आता है, जहां 366 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। उसके बाद पाकिस्तान (276), मिस्र (269), अफगानिस्तान (133), श्रीलंका (108), संयुक्त राज्य अमेरिका (105) और अल्जीरिया (100) का स्थान आता है। भारत 15वें स्थान पर है, जहां 50 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। जहां वर्ष 2009 में मौत की सजा के उन्मूलन में कुछ सकारात्मक पहलू देखे गए, वहीं मौत की सजा को अमल में लाने के कुछ ऐसे तरीके अपनाए जा रहे हैं, जो इक्कीसवीं सदी में किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराए जा सकते। चीन में सरेआम गोली मार दी जाती है। सऊदी अरब में गला काट कर सजा-ए-मौत दी जाती है। ईरान में अब भी पत्थर मार-मारकर मौत की सजा देने का प्रचलन है। अमेरिका जैसे आधुनिक मुल्क में बिजली के झटके से मौत की सजा दी जाती है। ज्यादातर मुल्कों में फांसी पर लटका कर मौत की सजा दी जाती है। चीन, थाईलैंड और अमेरिका में प्राणघातक इंजेक्शन का इस्तेमाल मौत की सजा देने के लिए किया जाता है। व्यवहार में देखा गया है कि मौत की सजा का आमतौर पर भेदमूलक इस्तेमाल किया जाता है। इसका प्रयोग गरीबों, अल्पसंख्यकों, विशेष नस्ल के समुदायों के खिलाफ किया जाता है। कई देशों में इसका राजनीतिक उपयोग भी किया जाता है। रिपोर्ट में इसके लिए ईरान का उदाहरण दिया गया है। वर्ष 2009 में ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान 12 जून से 5 अगस्त के बीच महज दो माह में 112 लोगों को मौत की सजा दी गई। रिपोर्ट का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि कई देशों में बाल अपराधियों के खिलाफ भी इस सजा का इस्तेमाल किया जा रहा है। वर्ष 2009 में ईरान और सऊदी अरब में किशोरों को भी फांसी पर चढ़ाया गया। उन्हें भी सजा दी गई, जो अपराध करते समय 18 साल से भी कम आयु के थे। ईरान में ऐसे 7 किशोरों और सऊदी अरब में 5 किशोरों को सजा-ए-मौत दी गई, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सीधा सीधा उल्लंघन है।
(यह लेख आज के दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है )
Sunday, April 11, 2010
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