Saturday, November 15, 2008

जो हमें पप्पू बना रहे थे वही बनेंगे पप्पू

चुनाव का सीजन जोरों पर है। जैसे बरसात में मेढक दिखाई पढ़ते हैं चुनाव में नेता। मेरा महत्व भी आजकल एकाएक बढ़ गया है। आपका भी बढ़ गया होगा। बाजार की भाषा में मुझे अतिरिक्त जनसँख्या कहा जाता है राजनेतिक शब्दावली मैं में वोट हूँ। माफ़ करें मैं अपना महत्व घटा रहा हूँ अभी तो मैं भगवान हूँ मुझे दिल्ली का भाग्य लिखना है। २९ नवम्बर को साबित करना है की मैं पप्पू नही हूँ भगवान इनका भला करे इन्होने यह नही कहा कि 'आप २९ को यह साबित करें की आप नपुंसक नही है'वैसे ऐसा करते तो भीड़ तो बहुत जुटती। खैर उनकी मर्जी वे हम से क्या करवाना चाहते हैं । हो सकता है लोक सभा चुनाव में वे ऐसा करें।

अब वोट तो मुझे देना ही है। देना भी चाहिए ही एक ही तो अधिकार हमारे पास। सो मैंने भी तय कर लिया वोट किसको देना है। मैं किसी पार्टी, उम्मीदवार, हिंदू , पड़ोसी या रिश्तेदार को वोट नही देने वाला हूँ। मैं वोट राजनीती से ऊपर उठकर दिल्ली हित में दूंगा। मैं उसे वोट देने जा रहा हूँ जो चुनाव के बाद बुरा कम न करे। जिसके कार्यों से मुझे दुःख न हो। जिससे मैं आसानी से मिल सकूँ। आप सोच रहे होंगे भगवान खोजोगे भगवान मिल जाएगा पर ऐसा उम्मीदवार , नेता तो मिलने से रहा। लेकिन मेरे पास है ऐसा नेता है । मैंने फ़ैसला किया है कि मैं उसी उम्मीदवार को वोट दूंगा जो चुनाव नही जीतेगा। वह जीतेगा नही तो भ्रस्टाचार में कैसे संलग्न रहेगा और उससे मिलना भी आसन होगा क्योंकि अगले चुनाव में भी तो उसे खड़ा होना है। इस प्रकार मुझे आत्मग्लानी भी नही होगी कि मेरा नेता घटिया कम कर रहा है । है ना दिमाग कि बात जो हमें पप्पू बना रहे थे वही बनेंगे पप्पू ......

Friday, November 7, 2008

संघ का एक और चेहरा. ........................ एबीवीपी के छात्र ने प्रोफेसर पर सरेआम थूका

एबीवीपी ने शालीनता की सारी सीमाओं को ताक पर रख दिया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने बृहस्पतिवार को दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रो। एसएआर गिलानी पर अपना गुस्सा निकाला। एक छात्र ने प्रोफेसर गिलानी पर सरेआम थूक दिया।
जाकिर हुसैन कॉलेज के प्रोफेसर एसएआर गिलानी के साथ हुई बदसलूकी और उसके बाद एबीवीपी के कार्यकर्ताओं का जमकर प्रदर्शन हुआ। कुछ ही देर में कैंपस छावनी में तब्दील हो गया। मीडिया को देखते ही आनन-फानन में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हटाना शुरू किया और डूसू अध्यक्ष नुपूर शर्मा समेत 15 एबीवीपी कार्यकर्ताओँ को हिरासत में ले लिया गया।
दरअसल प्रोफेसर गिलानी आर्ट्स फैक्लटी में एक बैठक में हिस्सा लेने आए थे, जिसमें सांप्रदायिकता और लोकतंत्र जैसे मुद्दों पर चर्चा की जानी थी। इस बैठक में बटला हाउस और मालेगांव जैसे कई मुद्दों को भी उठाया जाना था, जिसका विरोध एबीवीपी पहले से ही कर रही थी।
एबीवीपी का इतिहास दागदार रहा है। उज्जैन में प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या का मामला इसकी एक मिसाल पर है। दिल्ली विश्वविद्यालय का माहौल इस घटना की वजह से तनावपूर्ण है, लेकिन एबीवीपी अपनी गलती नहीं मान रही। आज इसे लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ दूसरे छात्र संगठन विरोध प्रदर्शन भी करने जा रहे हैं।

स्रोत: NDTV

Thursday, November 6, 2008

'मालेगांव, मोंडासा धमाकों में संघ का हाथ'

जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने आरोप लगाया है कि हाल ही में महाराष्ट्र के मालेगांव और गुजरात के मोंडासा में हुए विस्फोटों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का हाथ था।राजधानी में बृहस्पतिवार को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए अग्निवेश ने कहा कि मालेगांव और मोंडासा में हुए विस्फोटों में संघ से जुड़े संगठनों का ही हाथ है। एक निजी चैनल 'सुदर्शन' की रिपोर्ट का हवाला देते हुए अग्निवेश ने कहा कि इस चैनल ने विस्फोट होते ही उसकी खबर चला दी थी। अग्निवेश ने कहा कि इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि सुदर्शन चैनल संघ से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर आरोप सिद्ध हो जाने पर उनके साथ आतंकवादियों की तरह बर्ताव किया जाना चाहिए।
स्रोत : NDTV

Wednesday, November 5, 2008

ओबामा भारत के राष्ट्रपति चुने गए या अमेरिका के......!

बराक ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। ओबामा को बधाई। आज के भारतीय समाचार पत्र इस ख़बर से पटे हैं। अख़बारों को पढ़कर यह लग रहा है की जैसे ओबामा अमेरिका के नही भारत के राष्ट्रपति चुने गए हों। वैसे एक हिसाब से देश का अंग्रेजी बोलने वाला इलीट भारत से ज्यादा अमेरिका में रूचि लेता है रहता भारत में है सपने देखता है अमेरिका में रहने के। इसी की अभिव्यक्ति हैं आज के समाचार पत्र। बेन्नेट कोलमन समूह के अख़बारों का पहला पेज तो ओबामा को ही समर्पित किया गया है। कुछ लोग कह सकते हैं अश्वेत के चुने जाने के करण यह भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है। हकीकत यह नही है जब ओबामा नही चुने गए थे यानि चुनाव के दौरान भी अख़बारों टी वी चैनल्स ने अमेरिकी चुनाव की जम कर कवरेज़ की। हकीकत अश्वेत से प्यार करना होती तो हमारे देश का बड़ा हिस्सा आंबेडकर को भुला चुका होता? दलितों से एम्स जैसे संस्थानों में कैसा व्यव्हार होता है यह पुरा देश जानता है। एक अख़बार ने लिखा है ओबामा गाँधी के मुरीद हैं॥ क्या अब ओबामा इराक और अफगानिस्तान में सत्याग्रह करेंगे ? क्या वे अब ओसामा बिन लादेन का ह्रदय परिवर्तन करने का प्रयास करेंगे ? निश्चित रूप से नही फ़िर कैसे गाँधी वादी हैं ओबामा ? सच तो यह है की ओबामा गाँधी के नही हम अमेरिका के मुरीद हो चुके हैं.........

Tuesday, November 4, 2008

पैर पसारता सांप्रदायिक 'आतंकवाद'! - 1

भारत में पिछले कुछ समय पर नज़र डालें तो अनेक ऐसी घटनाएँ हुई हैं जो भारत की क़ानून और व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व और सरकार के लिए भी चुनौती हैं लेकिन किया इस चुनौती का सामना करने के लिए समुचित रणनीति पर ग़ौर किया जा रहा है या फिर इन हालात को राजनीतिक स्वार्थों के लिए भुनाने की कोशिश की जा रही है?
इतना ही नहीं, एक तबका इन्हें हिंदू और मुसलमानों से भी जोड़कर देखने लगा है. मगर भारतीय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन रह चुके जस्टिस जगदीश शरण वर्मा कहते हैं कि इसमें धर्म को खींचना ग़लत है.
जस्टिस वर्मा का कहना है, “जो लोग क़ानून के ख़िलाफ़ जो भी कार्रवाई करते हैं वे सब क़ानून की नज़र में अपराधी हैं और उनके साथ उसी के अनुसार बर्ताव होना चाहिए. इसमें हिंदू या मुसलमान होने की कोई बात ही नहीं है. क़ानून की नज़र में अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसी के अनुसार उनका दर्जा तय होना चाहिए."
अपराधी सिर्फ़ अपराधी... जो लोग क़ानून के ख़िलाफ़ जो भी कार्रवाई करते हैं वे सब क़ानून की नज़र में अपराधी हैं और उनके साथ उसी के अनुसार बर्ताव होना चाहिए. इसमें हिंदू या मुसलमान होने की कोई बात ही नहीं है. क़ानून की नज़र में अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसी के अनुसार उनका दर्जा तय होना चाहिए.
जस्टिस जेएस वर्मा
भारत में 'आतंकवादी' घटनाएँ क्यों हो रही हैं? क्या इन घटनाओं को आतंकवाद कहना भी चाहिए या ये महज़ क़ानून और व्यवस्था की घटनाएँ जिन्हें कुछ निजी स्वार्थों की वजह से 'आतंकवाद' का नाम दे दिया जाता है.
कार्रवाई का अभाव
भारतीय पुलिस सेवा यानी आईपीएस के पूर्व अधिकारी और पुलिस सुधारों पर काम कर रहे के एस ढिल्लों कहते हैं कि आतंकवाद का इस्तेमाल किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जाता था लेकिन अब इसकी परिभाषा कुछ बदल गई है, “आतंकवाद का मतलब होता था किसी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए की गई विध्वंसक कार्रवाई लेकिन अब इसका मतलब कुछ बदल सा गया है. भारत में जो बम विस्फोट की घटनाएँ हो रही हैं उनका राजनीतिक लक्ष्य सरकार को अस्थिर करना हो सकता है.”
के एस ढिल्लों कहते हैं, “इन घटनाओं को तथाकथित इस्लामी आतंकवाद से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि यह उस तरह का आतंकवाद है जो किसी परेशानी या हताशा की वजह से पैदा हुआ है.”
ढिल्लों कहते हैं, “अयोध्या में दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले भारत के मुसलमानों में कभी ऐसी भावना नहीं आई थी कि वो देश के दूसरे दर्जे के नागरिक हैं लेकिन मस्जिद गिराए को बड़े ही संगठित तरीके से जाने के बाद जब सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है. उसके बाद मुंबई में तुरंत सांप्रदायिक दंगों का भड़कना और सबसे ख़तरनाक थे वर्ष 2002 में गुजरात के दंगे.”
ठोस कार्रवाई का अभाव... अयोध्या में दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले भारत के मुसलमानों में कभी ऐसी भावना नहीं आई थी कि वो देश के दूसरे दर्जे के नागरिक हैं लेकिन मस्जिद गिराए को बड़े ही संगठित तरीके से जाने के बाद जब सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है. उसके बाद मुंबई में तुरंत सांप्रदायिक दंगों का भड़कना और सबसे ख़तरनाक थे वर्ष 2002 में गुजरात के दंगे.
केएस ढिल्लों
“मुसलमान भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और उनके एक तबके में ये भावनाएँ पनप रही हैं कि इस समुदाय को दबाने की कोशिश की जा रही है और ऐसा जब भी होता है वो राजसत्ता की मदद से होता है.”
चिंता की बात ये है कि राजनीतिक नेतृत्व की उदासनीता की वजह से एक धर्मनिर्पेक्ष देश में समाज सांप्रदायिक रास्तों पर बँटता नज़र आने लगता है. कुछ हिंदुओं का कहना है कि जितनी भी 'आतंकवादी' घटनाएँ होती हैं उनमें मुसलमानों का हाथ होता है.
दूसरी तरफ़ अनेक मुसलमानों का कहना है कि उनके साथ ना सिर्फ़ भेदभाव होता है बल्कि बड़े पैमाने पर उनके अधिकारों का उल्लंघन होता है. उन पर हमेशा शक किया जाता है. ऐसे माहौल में किसी घटना की सच्चाई क्या है, उसे जानने का इंतज़ार करने के बिना बहुत से लोग आनन-फानन में कोई राय बना लेते हैं जिसे देश और समाज का शायद इतना बड़ा नुक़सान हो जाता है जिसकी भरपाई करना अगर असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल ज़रूर होता है. क्या मीडिया को ऐसे माहौल में संयम बरतने की ज़रूरत है.
मीडिया की भूमिका
पत्रकार और गुप्तचर मामलों पर नज़र रखने वाले प्रवीण स्वामी कहते हैं, “जब भी किसी समुदाय के कुछ सदस्यों की गतिविधियों की वजह से पूरे समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है तो उसके ख़तरनाक परिणाम होते हैं. इस प्रवृत्ति को ख़त्म किया जाना चाहिए. हाल के समय में आज़मगढ़ को आतंकवाद का गढ़ कहा जाने लगा जबकि सच्चाई ये है कि आज़मगढ़ में लाखों लोग रहते हैं और अगर उनमें से चंद लोग किन्ही विध्वंसकारी गतिविधियों में शामिल हो भी गए तो पूरे आज़मगढ़ को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.”
विस्फोट की घटनाओं का निशाना हिंदू और मुसलमान दोनों ही होते हैं
प्रवीण स्वामी कहते है, “वर्ष 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के के लिए कुछ हिंदुओं को ज़िम्मेदार ठहराया था लेकिन इस आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि सारे गुजराती हिंदू सांप्रदायिक ही होते हैं.”
पुलिस और गुप्तचर एजेंसियों की बात मानें तो हाल के वर्षों में जो बम विस्फोट विस्फोट की घटनाएँ हुई हैं उनमें गिरफ़्तार होने वाले ज़्यादातर लोग मुसलमान हैं। इससे एक अनकहा संदेश समाज में ये भी जाता है कि जो भी चरमपंथी घटनाएँ होती हैं उनमें मुसलमानों का ही हाथ होता है. क्या राजनीतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी इस ख़तरनाक मानसिकता को बढ़ने से रोकने की नहीं है. क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि समस्या की जड़ को समझने की कोशिश करे और उसी के अनुसार कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे समाज को बँटने से रोका जा सके.

स्रोत:www.bbchindi.com