बंदूक बंदूक खेलें
इस बार चीन में हुए ओलंपिक खेल भारत के लिए महत्वपूर्ण रहे । अभिनव बिंद्रा ने बीजिंग ओलंपिक खेलों की १० मीटर एयर रायफल स्पर्धा का स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया। यह साबित कर दिया की भारत केवल बुद्ध और गांधी के अहिंसा जैसे पाठ पढाने में ही अग्रणी नही है बल्कि बंदूक चलाने में, निशानेबाजी में भी अग्रणी है। मुक्केबाजी और कुस्ती में भी पदक जीत कर हमने जता दिया की हमें सीधा सादा न समझा जाए । अब देश में दो चीज प्रमुख रूप से हो रही हैं । देश में बंदूक की मांग बढ़ गयी है और यह सवाल इसके कयास लगाये जा रहें है की क्या भारत भी २०१० में होने वाले खेलों को ऐसा ही यादगार बना पायेगा जैसा की चीन ने ओलोम्पिक को बनाया है . अभिनव बिंद्रा का निशाने बाजी में स्वर्ण जीतना और चीन का ओलंपिक में १७६४ अरब रूपये खर्च करना दूरगामी प्रभाव डालेगा।
निशानेबाजी खेल का औचित्य और प्रभाव
निशानेबाजी एक ऐसा खेल है जो उकरणों पर निर्भर है। इस प्रतियोगिता का आनंद दर्शक भी नही उठा पाते दर्शकों को दिखाने के लिए इसे शूट करना भी कठिन है यहाँ तक की प्रत्य्स रूप से भी इसका लुत्फ़ नही उठाया जा सकता। तब कहा जा सकता है यह खेल न किसी का मनोरंजन करता है न ही सोहार्द का संदेश देता है। ऐसे में इस खेल का औचित्य क्या है? जो भी हो यहाँ यह बताना जरुरी है की इसके क्या प्रभाव यहाँ पड़ने जा रहे हैं। ओलंपिक के बाद देश में बन्दूक की मांग बढ़ गयी है। दिल्ली में ही लाताश रोड पर इसथित बन्दूक बाजार में एयर राइफल की किल्लत पड़ गई है। देश के अन्यों शहरों से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं। यह क्या केवल खेल को बढावा देगा या इसके कुछ दुष्परिणाम होंगे यह सवाल महत्वपूर्ण है। अमेरिका जैसे देश इसके उदहारण है, जहाँ बंदूके आसानी से खरीदी जा सकती हैं। वहां का समाज बंदूकों से होने वाली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है और हर वक्त डर के साये में जीता है। पिछले दिनों दिल्ली से लगे हरियाणा राज्य में बच्चों द्वारा अपने ही सहपाठियों को मारने की घटनाएँ हो चुकी हैं जिसने पुरे नागरिक समाज को विचलित कर दिया था। समाज में बंदूकों की संख्या बढ़ने से होने वाली स्थिति को इन उदाहर्धोन से बखूबी समझा जा सकता है।
खेल सोहार्द का नहीं शान का प्रतीक बना
चीन ने जिस प्रकार अरबों रूपये इसके आयोजन पर खर्च किए उसने खेल के ही चरित्र को बदल कर रख दियाहै। नेपाल, बांग्लादेश जैसे देश ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने की शायद ही सोच पायें। यही नही वे देश जो छोटे और विकाशशील होने के बावजूद खेलों में अच्छा प्रदर्शन करते हैं वह भी कभी ऐसा करने की नही सोच सकते। इसने भारत में भी चर्चा शुरू कर दी है की क्या काम्मनवेअल्थ खेलों में हम ऐसा ही भव्य प्रदशन कर पाएंगे? हो सकता है भारत भी अरबों रूपये खर्च कर इसी मार्ग पर जाए। वैसे भी दिल्ली में आजकल सबकुछ काम्मनवेअल्थ के लिए ही हो रहा।
हेमंत पांडे
Thursday, September 18, 2008
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2 comments:
bandhuk ke saye me to humari janta kab se padi hai kabhi police ka bandhuk to kabhi atankbadiyon ka janta ke samne to hamesha se ye bandhuk chala aa raha hai aaj ki janta ab iski aadi ho chuki hai .kuchh samay me khelon me bhi aadi ho jayegi
shailesh
aapne to mujhe sochne ko majbur kar diya......
Kya Sahi men is tarah ke khel jarurir hain?
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