Saturday, March 27, 2010

दाल गलाने की कोशिश


भारत में शाकाहारी वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। देश की खाद्य शैली में दाल प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है। पर बीते सालों में जिस गति से दालों की कीमतें बढ़ी हैं आम आदमी की ही नहीं बल्कि मध्य वर्ग की थाली से भी दाल दूर होती गई है। आसमान छूती कीमतों को नियंत्रित करने में सरकार कई प्रयासों के बावजूद असफल रही। पर दाल संकट की छाया केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत हाल के बजट में भी देखने को मिली। बजट में दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया गया है। दरअसल, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। फिर भी उत्पादित दाल समुचित आपूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होती और देश को विदेश से आयात पर निर्भर रहना पड़ता है।

देश में दाल की खपत लगभग १८० लाख टन है जबकि उत्पादन क्षमता १५० लाख टन तक ही सीमित है। जिस वजह से ३० लाख टन से अधिक दाल आयात करनी पड़ती है। १९९४ में जहां देश ५.८ लाख टन दाल आयात करता था वहीं २००९ में दाल आयात २३ लाख टन पहुंच गया है। गौर करने वाली बात यह है कि देश में बढ़ती जनसंख्या के साथ ही प्रति वर्ष ५ लाख टन दाल की खपत बढ़ रही है। यदि घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए अभी से प्रयास नहीं किए गए तो २०१२ तक देश को प्रतिवर्ष ४० लाख टन दाल आयात करनी पड़ेगी।

घरेलू उत्पादन में कमी और विदेश से ऊंचे भाव में दाल आयात करने के कारण ही दाल की कीमतें लगातार बढ़ी हैं। २००९ में ही दाल की कीमत लगभग दोगुनी हो गई। इसका परिणाम है कि घरों का बजट दाल का खर्च वहन नहीं कर पा रहा है। दाल का उपभोग निरंतर घट रहा है। ४० सालों में प्रति व्यक्ति उपभोग २७ किग्रा प्रतिवर्ष से घट कर ११ किग्रा रह गया है। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सिफारिश है कि प्रति व्यक्ति प्रति दिन ८० ग्राम दाल उपभोग होना चाहिए यानी स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिवर्ष २९ किग्रा से ज्यादा। फिलहाल सुखद संकेत यह है कि दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने अतिरिक्त धन आंवटित किया।

बजट में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में ६०,००० दलहल एवं तिलहन ग्राम बनाने की घोषणा की गई है। हालांकि देश में दाल उत्पादन जिस स्तर पर पहुंच गया है उसमें एक झटके में सुधार नहीं होगा। सरकार की मंशा तभी पूरी हो सकती है जब वह किसानों को दाल उत्पादन में लाभ दिखा सके और किसान दाल की खेती की ओर आकर्षित हों।

भगवान का मंदिर तोड़ आडवाणी खुश हुये थे .....

क्या लिखना, भगवान आडवाणी का भला करे.......

Tuesday, March 23, 2010

दूषित होता जल, खतरे में हमारा कल

जल इंसान की ऐसी बुनयादी जरूरत है, जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन सिर्फ जल होना ही पर्याप्त नहीं है। इसका स्वच्छ होना भी स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है। पर चिंता का विषय यह है कि विश्व स्तर पर जल निरंतर दूषित होता जा रहा है। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। स्वच्छ जल के अभाव में पानीजन्य रोगों से पीडि़त लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिस कारण लाखों लोग असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दुनिया में सफाई की समुचित व्यवस्था का अभाव इस संकट को और जटिल बना रहा है। अंधाधुध अव्यस्थित विकास परियोजनाएं जल के प्रमुख स्रोत नदियों की अविकल धारा को बाधित कर रहे हैं। 22 मार्च (विश्व जल दिवस) के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय जल परिषद द्वारा जारी एक रिपोर्ट इन पहलुओं पर विस्तार से रोशनी डालती है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्रतिदिन 20 लाख टन नालों में बहने वाला मल और औद्योगिक व कृषि कचरा पानी में मिल जाता है। इसकी मुख्य वजह है सफाई की अपर्याप्त व्यवस्था। दुनिया में 2.5 अरब लोग अपर्याप्त सफाई में रहते हैं। इसके 70 प्रतिशत यानी 1.8 अरब लोग एशिया में हैं। सब सहारा अफ्रीका में 31 प्रतिशत परिवारों के पास ही सफाई के साधन हैं। यहां सफाई सुधार की गति भी काफी धीमी है। दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 1.2 अरब लोग खुले में शोच करते हैं। ग्रामीण इलाकों में यह अनुपात 3 में एक का है। दक्षिण एशिया में ऐसे लोगों की ग्रामीण आबादी 63 प्रतिशत है। औद्योगिकरण, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर भी पानी को बेतरतीब दूषित कर रहा है। विकासशील देशों में 70 प्रतिशत असंसाधित औद्योगिक कचरा पेयजल में घुल कर लोगों के घरों में पहुंच जाता है। नदियां पानी का सबसे बड़ा स्त्रोत हैं। कल कारखानों से बहता रसायन इन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहा है। खनन कार्य से भी नदियां दूषित हो रही हैं। अमेरिका के अकेले एक प्रांत में खनन के बाद छोड़ दी गई 23,000 खानों के कारण वहां बहने वाली छोटी-बड़ी नदियों का 2300 किमी का जल प्रदूषित हो गया है। दुनिया में विकास के नाम पर बनने वाली बड़ी परियोजनाओं का शिकार भी पानी हो रहा है। बांधों व अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं ने विश्व की सबसे बड़ी 227 नदियों की धाराओं को बाधित किया है, जो कि कुल नदियों का 60 प्रतिशत है। दूषित जल का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ रहा है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत का सर्वाधिक जिम्मेदार दूषित जल ही है। दुनिया में होने वाली कुल मौतों में 3.1 प्रतिशत मौतें अस्वच्छ जल और सफाई के अभाव के कारण ही होती हैं। जल के कारण प्रति वर्ष 4 अरब डायरिया के मामले सामने आते हैं। परिणामस्वरूप 22 लाख लोग प्रतिवर्ष मौत के गाल में समा जाते हैं, जिसमें अधिकांश संख्या पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की होती है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 प्रतिशत बच्चे डायरिया के कारण असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हर 15 सेकंड में एक बच्चा दूषित जल का शिकार होता है। भारत में भी बच्चों के खराब स्वास्थ और असमय मौतों का कारण भी डायरिया ही है। इससे भारत में प्रतिवर्ष तकरीबन 5 लाख बच्चे मारे जाते हैं। दरअसल, हमारी पृथ्वी पर 1.4 अरब घन किलो लीटर पानी है। 97.5 प्रतिशत पानी में समुद्र में है, जो खारा है। कुछ पानी बर्फ के रूप में है। महज एक प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है। इसमें से भी एक बड़ा हिस्सा कृषि कार्यो में खप जाता है। कुल एक प्रतिशत पानी से ही दुनिया की पूरी आबादी के लिए पानी की व्यवस्था करनी है। यदि यह भी दूषित होता रहा तो आगामी परिणाम भयावह होंगे। जल जिस गति से दूषित हो रहा है, उतना ही अधिक समय संयुक्त राष्ट्र के सहश्राब्दी विकास लक्ष्य में सबको जल उपलब्ध कराने के निर्धारित लक्ष्य में पड़ेगा। इसमें अधिक समय लगेगा या समय पर उपलब्ध कराने में लागत बढ़ जाएगी। फिलहाल वर्ष 2015 तक सभी को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने में 7,500 लाख अमेरिकी डालर व्यय होने का आंकलन है। यदि स्वच्छ जल की निर्बाध आपूर्ति हो तो विकास गति बढ़ जाती है। गरीब व अविकसित देशों में इस पर एक अध्ययन भी किया गया है। अध्ययन के मुताबिक जिन इलाकों में स्वच्छ जल व सफाई की समुचित व्यवस्था थी, वहां वार्षिक विकास दर 3.7 प्रतिशत थी, जबकि इसके अभाव वाले इलाकों में वार्षिक विकास दर महज 0.1 प्रतिशत थी।

Monday, March 22, 2010

भगत सिंह के शहादत दिवस के प्रति सरकार उदासीन क्यों ?



देश में किसी महापुरुष की सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है तो वह निर्विवाद रूप से शहीदे आजम भगत सिंह हैं। उन्हें याद किया भी जाता है तो सिफर् इसलिए की एक नौजवान २३ साल की उम्र में हंसते हुए देश की खातिर सुली पर चढ़ गया। वह क्या सोचते थे, सामाजिक, आथिर्क समस्याओं के प्रति उनका क्या नजरिया था यह बिरले ही लोग जानते हैं। स्कूल, कालेजों, सरकारी, गैरसरकारी कायरलयों में सार्वजनिक अवकाश देश में महापुरुषओं को याद करने का एक प्रचलित तरीका है। यह रस्म अदायगी भी भगत सिंह के लिए नहीं की जाती। भगतसिंह का न जन्म दिन मनाया जाता है न ही पुण्यतिथि। परिणाम यह है कि भगतसिंह को पसंद करने वाला जन मानस न उनका जन्मदिन बता सकता है न ही उसे उसका ?शहादत दिवस ही याद है। आज यानी २३ माचर् को उसी भगत सिंह का शहादत दिवस॔ है। आज ही के दिन १९३१ की आधी रात को भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इन नौजवानों का गुनाह सिफर् इतना था कि वे हर कीमत पर मुल्क की आजादी चाहते थे। आखिरकार उनकी शहादत अगस्त १९४७ में रंग लाई जब देश बि्रटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त हुआ। पर आजादी के ६ साल बाद भी देश कई आथिर्क व सामाजिक समस्याओं का सामना कर रहा है। इनमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बने हुए है। भगत सिंह के विचारों में इन सामाजिक बुराईयों का सटीक हल नजर आता है। छोटी सी उम्र में उन्होंने कई विचारोत्तोजक लेख लिखे। उनके लेख ताकिर्कता और वैज्ञानिकता से परिपूर्ण हैं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि उनके लिखे सभी लेख आज तक किसी भी सरकार द्वारा प्रका?िशत नहीं किए गऎ हैं। सरकारें इसके प्रति पूर्णतः उदासीन रही है। आजादी के बाद के कई नेताओं पर लिखी विरुदावलियां या उनकी लिखीं पुस्तकें सरकारी प्रकाशनों द्वारा प्रका?िशत की गई हैं। पुस्तकालयों में बहुतायत मिल भी जाती हैं पर भगत सिंह पर किताबें मुिश्कल से ही मिलती हैं। भगत सिंह का सबसे चचिर्त लेख है मैं नास्तिक क्यों हूं॔। जिसे उन्होंने अक्टूबर १९३ में जेल में लिखा था। यहां यह बता देना प्रसांगिक होगा कि १८ साल की उम्र में ही उन्होंने ईश्वर और धर्म को तिलांजलि दे दी थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था। उन्हें यकीन हो चला था कि सृ?ि्षट का निमार्ण या उस पर नियंत्र्ण करने वाली कोई सर्व?शक्तिमान परम सत्ताा नहीं है। इस लेख में भगत सिंह ने उन सवालों का जवाब भी दिया जो उनपर उस वक्त उठना लाजमी थे। उनका ई?श्वर पर यकीन न करने की वजह यह नहीं था कि ई?श्वर ने उनकी कोेई मनोकामना पूरी न की हो। उसके पीछे उन्होंने ठोस वैज्ञानिक कारण गिनाए और यह भी साफ लिखा कि वे किसी अहम` के कारण सर्व?शक्तिमान और सर्वव्यापी माने जाने वाले ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर रहे हैं। जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता और विश्व बधुंत्व पर लिखे उनके लेख आज की ?ारेलू व अंतरार््षट्रीय परिस्थिति में और भी प्रासंगिक हो गए हैं। १९२८ में भगत सिंह के लिखे तीन लेख ॑धर्म और हमारा स्वतंत्र संग्राम॔ ॑साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज॑ और ॑अछूत का सवाल॔ जो मई और जून में ॑किरती॔ में छपे थे। आज की भारतीय परिस्थिति पर सटीक बैठतें हैं। जिस अस्पृ?श्यता का उन्मूलन हम २१ वीं सदी में भी नहीं कर पाएं हैं भगत सिंह उस बारे लिखते हैं ॑॑उनके अछूतों मंदिरों में प्रवे?श से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र् हो जाएगा! ये सवाल बीसवीं ?शताब्दी में किए जा रहे हैंं, जिन्हें कि सुनते ही ?शर्म आती है। स्वतंत्र्ता संग्राम में भागीदारी करने वालों से भगत सिंह का सीधा सवाल था कि यदि आप एक इंसान को पीने का पानी देने से इंकार करते हो तो आप राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?? भगत सिंह के साम्प्रदायिकता पर लिखें लेख से साफ प्रकट होता है कि वे भारतीय राजनीति व समाज में अब तक प्रचलित ॑सर्वधर्म समभाव॔ की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा से इत्ताफाक नहीं रखते थे। उनका मानना था कि अपने अपने धर्म का अनुपालन करते हुए दो धर्म के लोगों का एक साथ रह पाना मुमकिन नहीं है। क्योंकि एक धर्म के अनुसार गाय का बलिदान जरूरी है तो दूसरे में गाय की पूजा का प्रावधान है। भगत सिंह इसी प्रकार अन्य उदाहरण गिनाते हैं। आजादी के आंदोलन में भी धर्म के प्रयोग को भगत सिंह आंदोलन के लिए बड़ी बाधा के रूप में देखते थे। उन्होंने साफ लिखा है कि इन धमोर् ने हिंदुस्तान का बेड़ा गकर् कर दिया है। भवि?्षय की उनकी दृ?ि्षट क्या थी जानते है उन्हीं के ?शब्दों में॑॑हमारी आजादी का अथर् केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्र्ता का नाम है " जब लोग परस्पर ? घुल मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाऎंगे। हम आज भी दिमागी गुलामी से मुक्त होने का इंतजार कर रहे हैं।