देश भयावह खाद्यान्ना संकट की ओर बढ़ रहा है। अनाज के उत्पादन में निरंतर कमी आती जा रही है। गोदामों में सुरक्षित अनाज भंडार कम हो गया है। दक्षिण-पश्चिमी मानसून की बेरुखी और उसके बाद दक्षिणी राज्यों में बाढ़ से इस सीजन में अनाज उत्पादन गिरने से सरकारी खरीद भी कम ही रहने के आसार हैैं। जिससे भविष्य के लिए अनाज भंडार में और कमी आना लाजमी है। आयातित अनाज पर देश की निर्भरता बढ़ती जा रही है। इस साल यह नया रिकॉर्ड बनाने की ओर अग्रसर है। देश में प्रतिवर्ष १८० लाख टन दाल की खपत है जबकि उत्पादन १५० लाख टन है यानी खपत की तुलना में ३० लाख टन की कमी। चीनी के मामले में देश पहले आत्मनिर्भर था। पिछले साल से इसका उत्पादन भी खपत की तुलना में पिछड़ गया है। अक्टूबर २००९ तक ही लगभग ६० लाख टन चीनी के आयात सौदे हुए हैं। इस साल भी देश को ६० लाख टन से ज्यादा चीनी आयात करनी पड़ेगी। स्थिति इस कदर खराब हो गई है कि २१ साल बाद देश चावल भी आयात करने जा रहा है। निजी व्यापारियों के लिए चावल आयात शुल्क मुक्त कर दिया गया है। सरकारी अनुमान है कि २० लाख टन चावल आयात करना पड़ सकता है। खाद्य तेलों के मामले में देश पहले से ही आयात पर निर्भर है। अक्टूबर २००९ में समाप्त हुए मार्केटिंग सीजन में कुल घरेलू खपत का ५० प्रतिशत आयात किया गया था। सबसे ज्यादा नकारात्मक पहलू यह है कि अधिकांश जिंसों का आयात ऊँचे भाव पर करना पड़ रहा है, जिस कारण देश में इन जिंसों की कीमतें तो नियंत्रित नहीं हो रही हैं लेकिन देश का कृषि आयात खर्च बढता जा रहा है। भारत सरकार के आँकड़े बताते हैं कि २००१-०२ में देश ने १६,२५७ करोड़ मूल्य के कृषि उत्पादों का आयात किया था जो २००७-०८ में बढ़कर २९,७७७ करोड़ रुपए पहुँच गया। दरअसल देश में कृषि उपज दर अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। भारत में चावल की उत्पादकता दर चीन के मुकाबले एक तिहाई और वियतनाम व इंडोनेशिया के मुकाबले लगभग आधी है। गेहूँ व चावल की विश्व औसत दर के मुकाबले भी भारत की औसत दर काफी कम है। दोनों खाद्यान्नाों की औसत उत्पादकता दर क्रमशः ८ और १० टन प्रति हैक्टेयर है जबकि भारत में औसत उपज दर क्रमशः २।६० और २।९० टन है। जबकि कृषि वैज्ञानिकों का आकलन है कि वर्तमान में उपलब्ध कृषि प्रौद्योगिकी का उचित इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाने की पर्याप्त संभावनाएँ हैं। इनके मुताबिक गेहूँ उत्पादन ४० प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है और चावल का उत्पादन लगभग दोगुना किया जा सकता है। इसके लिए कृषि को प्राथमिकता में रखकर सुनियोजित और परिणामदेय कार्ययोजना बनाने की जरूरत होगी। नीति निर्माताओं को यह समझना पड़ेगा कि खाद्य सुरक्षा का मसला महज देश के नागरिकों को भरपेट भोजन कराने के लिए ही जरूरी नहीं बल्कि किसी देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए भी जरूरी है।
२४ दिसम्बर को नई दुनिया में प्रकाशित लेख ।
Wednesday, December 23, 2009
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1 comment:
Chinta ki baat.
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2009 के श्रेष्ठ ब्लागर्स सम्मान!
अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
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