Wednesday, December 30, 2009
युद्धजनित तनाव में अमेरिकी सैनिक...................आत्महत्या का आंकड़ा २०० के पार
एक ओर इराक व अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों में नशा करने की प्रवृत्ति बढ़ने के समाचार पहले से ही सामने आते रहे हैं दूसरी ओर अमेरिकी सेना में आत्महत्या के मामले साल दर साल बढ़ते जा रहे हैं। अमेरिकी सेना द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि गत कुछ सालों में सैनिकों में आत्महत्या करने के प्रयासों और उससे मरने वाले सैनिकों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। इस वर्ष यह आंकडा 200 के पार पहंुच गया है। 31 अक्टूबर तक 211 सैनिकों ने आत्महत्या करके मौत को गले लगा लिया जबकि 2008 में इस तरह 197 सैनिकों ने अपनी जान दे दी थी। उल्लेखनीय है कि तकरीबन 11 लाख सैनिकों वाली अमेरिकी सेना ने 1980 से आत्महत्या के आंकड़े की जानकारी रखना प्रारम्भ किया था। 2009 का आंकड़ा अभी तक का सर्वाधिक है। 2003 में 79, 2004 में 67, 2005 में 85, 2006 में 102 और 2007 में 115 सैनिकों ने आत्महत्या की थी।
हांलाकि, सेना अफगानिस्तान व इराक में तैनाती और आत्महत्या के बीच किसी भी प्रकार के संबंध से इंकार करती आई है, लेकिन जानकार मानते हैं कि आत्महत्या की प्रमुख वजह युद्ध जनित तनाव ही है। गौर करने वाली बात यह है कि सेना के ही मुताबिक 41.8 प्रतिशत सैनिक पहली तैनाती के बाद ही ऐसा कदम उठा लेते हैं जबकि 10.3 प्रतिशत सैनिक दो बार तैनाती के बाद 1.7 प्रतिशत सैनिक तीन बार तैनाती के बाद और करीब एक प्रतिशत चार बार तैनाती के बाद अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। सेना में आत्महत्या का अनुपात प्रति लाख सैनिकों पर 20 पहुंच गया है जो देश के राष्ट्रीय औसत से अधिक है। कुल आबादी में यह अनुपात प्रति लाख पर 19 का है। इन आठ सालों में आत्महत्या से मरने वालों की संख्या अफगानिस्तान में युद्ध में अब तक कुल मारे गए सैनिकों से ज्यादा है। प्रतिदिन औसतन 5 सैनिक आत्महत्या का प्रयास करते हैं।
आत्महत्या के निरंतर बढ़ते मामलों से चिंतित अमेरिकी सेना एक और सेना में मनोचिकित्सों की संख्या बढ़ा रही है दूसरी और ‘नेशनल इनसटिट्यूट आॅफ मेंटल हैल्थ’ के साथ मिलकर आत्महत्या की वजहों को जानने के लिए एक विस्तृत अध्ययन भी कर रही है। यहां यह बताते चलें कि इराक और अफगानिस्तान में अपनी सेवा देने के बाद सेवानिवृत हुए सैनिकों में भी आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं। हांलाकि, भूतपूर्व सैनिकों के आत्महत्या के अधिकारिक रिकार्ड अमेरिका में नहीं रखे जाते है, लेकिन स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं कि इनकी संख्या सेवारत सैनिकों से भी ज्यादा हो सकती है।
न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों और स्थानीय सेना में नशा करने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। 2003 के बाद इराक के मेडिकल स्टोरों में ‘अर्टेन’ नामक दवा की बिक्री एकाएक बढ़ गई है। यहां तक की इस दवा की काला बाजारी भी जोरों पर है। यह दवा सैनिकों को दबाव में राहत देती है। माना जाता है कि दवा सैनिकों को साहसी और बहादुर बनाती है। खासकर सैनिक इस दवा को उपयोग तब करते है जब किसी के घर में छापा मारना होता है क्योंकि इस दवा को लेने के बाद सैनिक बेझिझक किसी का भी दरवाजा तोड़ कर अंदर घूस जाते हैं। कुछ सर्वे में पाया गया है कि तीन में से एक सैनिक इस दवा का सेवन कर रहा है।
इसके अलावा अन्य भी वजहें हैं जो सेना के लिए चिंता का विषय हैं जैसे सैनिकों के परिजनों का युद्ध का विरोध और कई सैनिकों का सेना को छोड़ देना इत्यादि। अमेरिकी सेना ने अतीत में विदेशी जमीन पर युद्ध लड़ते हुए इससे भी बुरे दिन देखे हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान कई सैनिकों युद्ध के मैदान से भाग गये थे। अमेरिका के सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि 1968 में ही 53000 हजार सैनिक भागे थे। 70 के दशक में ऐसी घटनाएं हुई थी जब सिपाहियों की पूरी की पूरी टुकड़ी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया था। अतीत के यह अनुभव अमेरिका की चिंता केा ओर बढ़ा देते हैं यही वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को देशवासियों को बारबार यह बताते रहना पड़ता है कि सेना की वतन वापसी जल्द ही होगी ।
Tuesday, December 29, 2009
13 सालों से फरार है रेप का आरोपी डीआईजी
2 फरवरी, 1997 को पीड़ित महिला ने दौसा में डीआईजी के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराया। मधुकर उस वक्त नोएडा में थे और तभी से वह गायब हैं।
अदालत ने डीआईजी के खिलाफ कई वारंट भी निकाले हैं, लेकिन डीआईजी साहब अब तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं।
डीआईजी ने कांस्टेबल की पत्नी मल्ली देवी को अपने नोएडा के घर में रखवाली के काम पर रखा था। इस दौरान डीआईजी ने मल्ली देवी का कई बार बलात्कार किया।
इस घटना को लेकर उस वक्त आंदोलन करने वाले दौसा के निर्दलीय सांसद डॉ किरोड़ीलाल मीणा ने टंडन को अब तक गिरफ्तार नहीं किए जाने के विरोध में एक बार फिर से आंदोलन शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में वह मंगलवार को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भी मिलने पहुंचे, लेकिन उनसे उनकी मुलाकात नहीं हो पाई। मीणा इसके बाद मुख्यमंत्री निवास के पास धरने पर बैठ गए।
मीणा ने संवाददाताओं से बातचीत में कहा, "तत्कालीन भैरोंसिंह शेखावत सरकार के बाद से इस मामले को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। पीड़ित महिला 13 साल से न्याय मिलने की उम्मीद लगाई हुई है। घटना के बाद से ही डीआईजी फरार है। उसके खिलाफ वारंट भी जारी हुआ था पर वह अभी तक पुलिस की गिरफ्त में नहीं आया है।"
स्रोत NDTV
Wednesday, December 23, 2009
खतरे में है खाद्यान्ना सुरक्षा
२४ दिसम्बर को नई दुनिया में प्रकाशित लेख ।
Tuesday, December 22, 2009
आयातित अनाज पर बढ़ती निर्भरता
भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है, जिसकी 65-70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। इस आबादी के खेती में लगे होने के बावजूद देश को अपनी खाघ जरूरतों को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। हाल के वर्षों में खाघ पदार्थो के आयात की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। उदारीकरण से पूर्व भारत की आयात प्राथमिकताएं तीन भागों में बंटी थीं। पहला, विकास हेतु अत्याधुनिक मशीनरी का आयात; दूसरा, भारत में अनुपलब्ध पेट्रोलियम पदार्थो का आयात और तीसरे स्थान पर वे अन्य वस्तुएं व खाघ पदार्थ थे, जिनकी देश में अत्यंत कमी थी। लेकिन ’90 के बाद से भारत ने घरेलू बाजार में प्रतियोगिता के नाम पर आयात शुल्क में निरंतर कटौती करना शुरू किया। उसके बाद से ही देश में खाघ पदार्थों की पर्याप्त आपूर्ति करने, कीमतों में नियंत्रण के लिए आयात का शॉर्टकट फार्मूला अपनाया। नीति निर्माताओं ने दावा किया था कि आयात पर उदार नीति, आपूर्ति की कमी पाटने और इस तरह मूल्य नियंत्रण में कारगर साबित होगी। हालांकि ये दावे हवाई साबित हुए हैं, लेकिन अब यह नीति ही बन गई है कि जिस भी खाघ वस्तु की कमी होती है, सरकार तुरंत आयात का निर्णय ले लेती है। पिछले एक साल में जिस तेजी से महंगाई बढ़ी है, उसी गति से आयात भी बड़ा है। वाणिज्य एवं उघोग मंत्रालय द्वारा संवेदनशील वस्तुओं के आयात के बारे में जारी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले पांच माह में देश में संवेदनशील वस्तुओं का आयात पिछले साल की इसी अवधि में हुए आयात के मुकाबले 30 प्रतिशत बढ़कर 22,429 करोड़ रूपए पहुंच गया है। इस दौरान देश में सकल उपभोक्ता वस्तुओं का कुल आयात 4 लाख 97 हजार 108 करोड़ रूपए का हुआ। गौरतलब है कि अनाज, दाल, फल व सब्जियों, चाय, कॉफी, दूध एवं दुग्ध उत्पादों व खाघ तेल का आयात सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ा है। तिलहन उघोग के प्रमुख संगठन सैलवेंट एक्स्ट्रेक्टर्स एसोसिएशन (एसईए) के आंकड़ों के मुताबिक, नवम्बर, 2008 से अक्टूबर, 2009 के दौरान पिछले साल की तुलना में वनस्पति तेल का आयात 37 प्रतिशत बढ़ा है। इस दौरान 28 हजार करोड़़ रूपये मूल्य का रिकॉर्ड 86.6 लाख टन वनस्पति तेलों का आयात किया गया, जबकि पिछले वर्ष समान अवधि में 25 हजार करोड़ रूपए मूल्य के 63.1 लाख टन तेलों का आयात हुआ था। यहीं यह बताते चलें कि 1994 में वनस्पति तेलों का आयात शुरू होने से अब तक यह रिकॉर्ड आयात है। हाल में आसमान छूती चीनी की कीमतें सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रही हैं। चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक होने, लगातार दो वर्ष तक अपनी खपत से 40 लाख टन अधिक चीनी उत्पादन करने के बावजूद अब देश भारी मात्रा में चीनी आयात कर रहा है। अक्टूबर, 2009 तक भारत 50 लाख टन रॉ शुगर व 8 लाख टन सफेद चीनी आयात कर चुका है। चालू मार्केटिंग सीजन में भी कम से कम 60 लाख टन चीनी आयात होने की संभावना है। यहां यह बताना जरूरी है कि देश 30 रूपए प्रति किलो से ऊपर के भाव पर चीनी आयात कर रहा है, जबकि साल भर पहले ही भारत ने 12 रूपए प्रति किलो की दर से 48 लाख टन चीनी निर्यात की गई थी। दालों की कीमत नियंत्रित करने के लिए भी सरकार ने आयात का ही मार्ग चुना है। विडम्बना यह है कि म्यांमार जैसा छोटा व पिछड़ा देश भारत को दालों का निर्यात कर रहा है। देश में दालों की सालाना खपत 180 लाख टन है, जबकि सालाना उत्पादन लगभग 150 लाख टन है। देश में जनसंख्या के बढ़ने के साथ ही प्रतिवर्ष 5 लाख टन दाल की खपत बढ़ रही है, जबकि इसके अनुरूप उत्पादन बढ़ाने की योजना पर गौर नहीं हो रहा है। दालों के आयात से दालों की विक्रय कीमत पर तो दबाव नहीं बन रहा है, जबकि दाल उत्पादकों को आयात की वजह से अच्छी कीमत नहीं मिल पा रही है। अब 21 साल बाद देश चावल भी आयात करने जा रहा है। चावल आयात भी 20 लाख टन होने का अनुमान लगाया जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र की तीन कंपनियां 30 हजार टन चावल आयात के लिए टेंडर भी जारी कर चुकी हैं। इस पर निर्यातकों की आ॓र से जो निविदाएं भरी गई हैं, उनमें दर्ज मूल्य घरेलू भाव से लगभग दोगुना है। अन्य कृषि जिंसों की तरह चावल आयात पर भी शुल्क हटा दिया गया है। इससे व्यापारी घरेलू बाजार के बजाय चावल आयात में लाभ देख रहा है जिसका दबाव अंतत: देश के धान उत्पादक किसानों पर पडे़गा। कुल मिलाकर, देश की खाघ पदार्थों के आयात पर बढ़ती निर्भरता दूरगामी रूप से देश हित के खिलाफ है, जो भविष्य में भयंकर खाघ असुरक्षा में डाल सकता है। इसलिए गंभीर चिंतन की जरूरत है कि कैसे देश में कृषि उपज को बढ़ाया जाए, क्योंकि भारत जैसा विशाल जनसंख्या वाला देश आयात से अपने नागरिकों के लिए भरपेट भोजन का प्रबंध नहीं कर सकता।
७ दिसम्बर को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित लेख ।
Saturday, December 19, 2009
भगवान् कहिये या खुदा फर्क तो पड़ता है
फरमाइए
रिप्लाई आया: खेरियत है। आप ?
मैंने कहा : दुआ है आपकी
हमारी क्या दया होती है दया तो ऊपर वाले की है ।
ऊपर वाला कौन ?
भगवान्
भगवान् या खुदा
एक ही बात है ।
फिर क्या था मैंने भी कहा कैसे मंदिर की जगह कभी मस्जिद या चर्च चले जाते हो क्या ?
जवाब आया : नहीं
मैंने भी कहा : तो खुदा, भगवान् एक ही कैसे हो गए?
मित्र झल्ला गए बोले सुबह - सुबह चाटने को कोई नहीं मिला क्या ?
मैंने कहा आप सवाल के जवाब से बच रहे हैं। बात एक ही है तो कभी चर्च चले जाया करो कभी गुरुद्वारा कभी .... ।
ऐसा क्यों होता है की हम बोलने को तो बोल देते हैं एक ही बात है व्यवहार में ऐसा नही होता । क्या आप भी कहते हैं एक ही बात है । लेकिन कुछ भी कह दीजिये भगवान् कहिये या खुदा फर्क तो पड़ता है ।
बकबक समाप्त ।
Thursday, December 17, 2009
कब कटेगी चौरासी: चेहरे की धूल दिखाता आईना
पुस्तक : कब कटेगी चौरासी
लेखक : जरनैल सिंह
कीमत : 99 रुपए
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स
लेखन की सार्थकता अगर संवेदना को छूने में है तो कब कटेगी चौरासी इससे कुछ आगे निकल जाती है. इसलिए क्योंकि यह हमारी संवेदना को सिर्फ छूती ही नहीं बल्कि झकझोर देती है, सावधान भी करती है कि सभ्यता के विकास के तमाम दावों के बावजूद हम अब भी काफी हद तक अपनी आदिम पाशविक प्रवृत्तियों से बंधे हुए हैं. इसे पढ़ते हुए लगातार लगता है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और बरबस ही नाजी कैंपों और बंटवारे पर लिखी गई किताबों के अंश या इन घटनाओं पर बनी फिल्मों के दृश्य मन में कौंधते हैं. किताब की प्रस्तावना में चर्चित लेखक खुशवंत सिंह लिखते हैं कि यह उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हों. उनकी बात बिल्कुल सही है. अगर इसे पढ़कर बतौर समाज हमें अपना अक्स धुंधला नजर आए तो कसूर इस आईने का नहीं बल्कि हमारे चेहरे पर पड़ी धूल का होना चाहिए.
कब कटेगी चौरासी के लेखक हैं कुछ समय पहले एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृहमंत्री पी चिदंबरम की तरफ जूता उछालकर चर्चा में आए पत्रकार जरनैल सिंह. उनके मुताबिक इसे लिखने का उद्देश्य 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिखों के नरसंहार की बर्बरता और उसके बाद भी अब तक लगातार जारी अन्याय का सच सामने लाना है. वे लिखते भी हैं, ‘जूते से विरोध प्रकट कर दुनिया को इस अन्याय की याद तो दिला दी पर इस अन्याय को किताब के तौर पर सामने लाकर दोषियों को शर्मिंदा करना होगा.’ इसके बाद जरनैल लिखते हैं,‘सिखों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ उनके दर्द और रोष को अपने सांकेतिक विरोध के जरिए प्रकट करने के बाद मुझे तिलक विहार और गढ़ी में 1984 के पीड़ितों की विधवा कॉलोनियों में जाने का मौका मिला. उनकी दयनीय स्थिति को देखकर और दर्दनाक कहानियों को सुनकर दिल और ज्यादा दुख से भर गया. मैंने देखा कि 1984 के कत्लेआम को उस तरह से कवर ही नहीं किया गया जिस तरह से किया जाना चाहिए था..लगा कि इस दास्तान को दुनिया के सामने लाना बेहद जरूरी है.’
इस तरह देखा जाए तो यह एक तरह से भुक्तभोगियों द्वारा अपनी व्यथा का मार्मिक वर्णन है जिसके जरिए कुछ अहम सवाल उठाए गए हैं. चूंकि जरनैल पत्रकार हैं और बेहद आहत भी, इसलिए इस काम में उन्होंने अपनी पत्रकारीय प्रतिभा के साथ निजी भावनाओं का मेल भी कर दिया है जो किताब पढ़ते हुए महसूस भी होता है. दंगा पीड़ितों की जिंदगी के दुखद अध्याय के साथ चलती गई उनकी कलम ने अपने दिल का गुबार भी जी-भर उड़ेला है. उन्हीं के शब्दों में ‘अगर किसी भूकंप या तूफान में लोग मारे गए हों तो अलग बात है पर कत्लेआम को कैसे भूल जाएं? खासकर जब तक न्याय न हुआ हो..भूल जाना कोई हल नहीं है. इतिहास से सबक लिया जाता है न कि उसे भूला जाता है. सबक इसलिए ताकि वैसी गलतियां फिर न दोहराई जाएं. जरूरत भूलने की नहीं, न्याय करने की है.’
84 के पीड़ितों की कहानियां अखबारों या पत्रिकाओं के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में पहले भी कही गई हैं मगर हिंदी में उन्हें एक किताब के रूप में सामने लाने का शायद यह पहला प्रयास है. समीक्षा के लिहाज से देखा जाए तो इसमें कुछेक दोष जरूर हैं मगर जब त्रासदी इतनी विकराल और हृदयविदारक हो तो उसके वर्णन में हुए चंद भाषागत और भावनात्मक दोष ज्यादा मायने नहीं रखते.
महान कथाकार शैलेश मटियानी कभी कह गए थे कि समाज की संवेदना को बचाए रखने का काम ईश्वर और प्रकृति ने लेखक पर छोड़ा है. जरनैल ने अपनी यह जिम्मेदारी सच्चे मन और अच्छे ढंग से निभाई है.
विकास बहुगुणासाभार तहलका